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Who was Raja Mahendra Pratap : जानिए कौन हैं राजा महेंद्र प्रताप सिंह, उनका इतिहास और किस लिए जाने जाते थे?



आप और हम सभी हाथरस को हास्य कवि काका हाथरसी के कारण जानते हैं, जबकि यहां की इतनी बड़ी शख्सियत राजा महेंद्र प्रताप सिंह से साथ इतिहासकारों ने खूब अन्याय किया है। सरदार पटेल की तरह राजा महेंद्र प्रताप के साथ भी कांग्रेस सरकार के इतिहासकारों ने नाइंसाफी की, इस इंटरनेशनल क्रांतिकारी का कद कई मायनों में गांधी और बोस के करीब हैं, ये वो व्यक्ति हैं जिन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को चुनावों में करारी हार दी थी। 


 राजा महेंद्र प्रताप सिंह का1 दिसंबर 1886 को मुरसान(उत्तर प्रदेश) में जन्म हुआ। एक सच्चे देशभक्त, क्रान्तिकारी, पत्रकार और समाज सुधारक थे। अपनी कार्यशैली एवं जीवन शैली में सभी धर्मों के समन्वय और प्रेम को महत्त्व देने कारण ही इन्हें  'आर्यन पेशवा' के नाम से प्रसिद्धि मिली थी। हिंदू परिवार में जन्म हुआ, मुस्लिम स्कूल में पढ़े, ईसाइयों के सानिध्य में काफी समय बिताया और सिख धर्म की लड़की से विवाह हुआ।


राजा महेंद्र प्रताप सिंह का विवाह हरियाणा की जींद रियासत के  नरेश महाराज रणवीर सिंह जी की छोटी बहन बलवीर कौर से हुआ।

रेल गाड़ियों में गई बारात

राजा महेन्द्र प्रताप जी का विवाह जींद में बड़ी शान से हुआ। दो स्पेशल रेल गाड़ियों में बारात मथुरा स्टेशन से जींद गई। इस विवाह पर जींद नरेश ने तीन लाख पिचहत्तर हज़ार (3,75,000) रुपये व्यय किए थे। यह उस सस्ते युग का व्यय है, जब 1 रुपये का 1 मन गेहूँ आता था। विवाह में इतना अधिक दहेज आया था कि वृन्दावन के महल का विशाल आँगन उससे खचाखच भर गया। इस दहेज का बहुत सा सामान महाराज ने इष्ट मित्रों और जनता को बांट दिया। विवाह के समय राजा साहब की आयु केवल 14 वर्ष की थी और उनकी महारानी उनसे तीन वर्ष बड़ी थीं। इस छोटी अवस्था में भी महाराज में दानवृत्ति और त्यागवृत्ति विद्यमान थी। वह राज्याधिकार प्राप्त होने पर भी यथावत बनी रही, वरन् कहना चाहिए कि उनमें परोपकार की भावना निरंतर विकसित होती रही।


महेंद्र प्रताप शुरू से ही आम शाही नवयुवकों की तरह नहीं थे। उनके पास मौका था कि वो भी राजाओं के बने संघ में शामिल होकर अंग्रेजों से अपने लिए बेहतर सुविधाओं की मांग करते और खुश रहते। लेकिन वो उनमें से नहीं थे, उनकी पढ़ाई मोहम्मडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज, अलीगढ़ में हुई, जो आज अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के तौर पर जाना जाता है। शुरू से ही अंग्रेज, मुस्लिम टीचर और मुस्लिम मित्रों के बीच रहने से राजा की सोच इंटरनेशनल हो गई। उनके अंदर क्रांति की लहरें हिलोरे मारने लगी। 1905 के स्वदेशी आंदोलन से वो इतना प्रभावित हुए कि अपने ससुर के मना करने के बावजूद वो 1906 के कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में हिस्सा लेने चले गए।

मार्क्सवादी होने के बावजूद उन्हें कांग्रेस के हिंदूवादी नेता बाल गंगाधर तिलक और विपिन चंद्र पाल पसंद आते थे। एक बार तो छुआछूत के खिलाफ लोगों को साथ लाने के लिए उन्होंने अलमोड़ा में वहां की नीची जाति के परिवार के घर में खाना खाया, तो आगरा में भी एक दलित परिवार के साथ खाना खाया। फिर विदेशी वस्त्रों के खिलाफ अपनी रियासत में उन्होंने जबरदस्त अभियान चलाया। बाद में उनको लगा कि देश में रहकर कुछ नहीं हो सकता। लाला हरदयाल, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, रास बिहारी बोस, श्याम जी कृष्ण वर्मा, अलग- अलग देशों से ब्रिटिश सरकार की गुलामी के खिलाफ उस वक्त भारत के लिए अभियान चला रहे थे। उस वक्त तक जर्मनी में रह रहे भारतीय क्रांतिकारी बर्लिन कमेटी बना चुके थे, प्रथम विश्वयुद्ध को वो एक मौका मान रहे थे, जब इंग्लैंड की विरोधी शक्तियों से हाथ मिलाकर भारत को गुलामी से मुक्ति दिलाई जा सके।

राजा महेंद्र का नाम तब तक इतना हो चुका था कि स्विट्जरलैंड में उनकी मौजूदगी की भनक लगते ही चट्टोपाध्याय ने लाला हरदयाल और श्याम जी कृष्ण वर्मा को उन्हें बर्लिन बुलाने को कहा। बाकायदा जर्मनी के विदेश मंत्रालय से कहा गया उन्हें बुलाने को। लेकिन राजा ने खुद जर्मनी के किंग से व्यक्तिगत तौर पर मिलने की इच्छा जताई, इधर जर्मनी के राजा भी उनसे मिलना चाहते थे, जर्मनी के राजा ने उन्हें ऑर्डर ऑफ दी रैड ईगल की उपाधि से सम्मानित किया। राजा जींद के दामाद थे और उन्होंने अफगानिस्तान की सीमा से भारत में घुसने के लिए पंजाब की फुलकियां स्टेट्स जींद, नाभा और पटियाला की रणनीतिक पोजीशन की उनसे चर्चा की।

जर्मन राजा से काफी भरोसा पाकर वो बर्लिन से चले आए। बर्लिन छोड़ने से पहले उन्होंने पोलैंड बॉर्डर पर सेना के कैंप में रहकर युद्ध की ट्रेनिंग भी ली। उसके बाद वो स्विट्जरलैंड, तुर्की, इजिप्ट में वहां के शासकों से ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सपोर्ट मांगने गए, उसके बाद अफगानिस्तान पहुंचे। उन्हें लगा कि यहां रहकर वो भारत के सब

से करीब होंगे और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जंग यहां रहकर लड़ी जा सकती है।
आप जानकर हैरत में पड़ जाएंगे कि उस वक्त जब वो कई देश के राजाओं से अपने देश की आजादी के लिए मिल रहे थे, उनकी उम्र महज 28 साल थी और अगले 32 साल वो दुनिया भर की खाक ही छानते रहे।।।।। दरबदर।

पहली निर्वासित सरकार का गठन

ये वो क्रांतिकारी हैं जिसने 28 साल पहले वो काम कर दिया, जो नेताजी बोस ने 1943 में आकर किया। ये वो व्यक्ति हैं, जिसे गांधी की तरह ही नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया और उन दोनों ही साल नोबेल पुरस्कार का ऐलान नहीं हुआ और पुरस्कार राशि स्पेशल फंड में बांट दी गई।
एक दिसंबर 1915 का दिन था, राजा महेंद्र प्रताप का जन्मदिन, उस दिन वो 28 साल के हुए थे। उन्होंने भारत से बाहर देश की पहली निर्वासित सरकार का गठन किया, बाद में सुभाष चंद्र बोस ने 28 साल बाद उन्हीं की तरह आजाद हिंद सरकार का गठन सिंगापुर में किया था। राजा महेंद्र प्रताप को उस सरकार का राष्ट्रपति बनाया गया यानी राज्य प्रमुख। मौलवी बरकतुल्लाह को राजा का प्रधानमंत्री घोषित किया गया और अबैदुल्लाह सिंधी को गृहमंत्री। भोपाल के रहने वाले बरकतुल्लाह के नाम पर बाद में भोपाल में बरकतुल्लाह यूनीवर्सिटी खोली गई।

राजा महेंद्र प्रताप का सही से आकलन इतिहासकारों ने किया होता तो आज राजा को ही नहीं दुनिया हाथरस जिले को और उनकी रियासत मुरसान को भी उसी तरह से जानती, जैसे बाकी महापुरुषों के शहरों को जाना जाता है। 

पिछले कुछ वर्षों से सुर्खियों में हैं राजा महेंद्र प्रताप सिंह

पीएम मोदी ने काबुल की संसद में राजा महेंद्र प्रताप सिंह पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था, “Indians remember the support of Afghans for our freedom struggle; the contribution of Khan Abdul Gaffar Khan, revered as Frontier Gandhi; and, the important footnote of that history, when, exactly hundred years ago, the first Indian Government-in-Exile was formed in Kabul by Maharaja Mahendra Pratap and Maulana Barkatullah।King Amanullah once told the Maharaja that so long as India was not free, Afghanistan was not free in the right sense। Honourable Members, This is the spirit of brotherhood between us”।
फ्रंटियर या सीमांत गांधी को जानने वाले आज लाखों मिल जाएंगे, लेकिन राजा महेंद्र प्रताप का नाम कितने लोग जानते हैं, मोदी ने सीमांत गांधी के साथ राजा महेंद्र प्रताप का नाम लिया और उनके और अफगानिस्तान के किंग के बीच की बातचीत को भाईचारे की भावना का प्रतीक बताया।

गांधीजी और राजा में अजीबो-गरीब रिश्ता था, बहुत कम लोगों को पता होगा कि हाथरस के इस राजा को नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया था और एक तय वक्त के बाद नोबेल कमेटी के कमेंट्स को सार्वजनिक कर दिया जाता है।

नोबेल कमेटी के विचार

राजा के बारे में नोबेल कमेटी ने उस वक्त क्या लिखा था ये पढ़िए, "Pratap gave up his property for educational purposes, and he established a technical college at Brindaban। In 1913 he took part in Gandhi's campaign in South Africa। He travelled around the world to create awareness about the situation in Afghanistan and India। In 1925 he went on a mission to Tibet and met the Dalai Lama। He was primarily on an unofficial economic mission on behalf of Afghanistan, but he also wanted to expose the British brutalities in India। He called himself the servant of the powerless and weak।"।

सबसे खास बात थी कि नोबेल पुरस्कार समिति की इन्हीं लाइनों से ये पता चला कि वो गांधीजी के साउथ अफ्रीका वाले आंदोलन में भी हिस्सा लेने जा पहुंचे थे, इतना ही नहीं वो तिब्बत मिशन पर दलाई लामा से भी मिले थे। ऐसी इंटरनेशनल तबीयत के थे राजा महेंद्र प्रताप। उस साल किसी को भी नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया, सारी पुरस्कार राशि किसी स्पेशल फंड में दे दी गई। इसका गांधी कनेक्शन ये है कि बिलकुल ऐसा ही तब हुआ था, जब गांधीजी को 1948 में नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया था, गांधीजी की हत्या होने के चलते बात आगे नहीं बढ़ी और उस साल भी नोबेल पुरस्कार के लिए किसी के नाम का ऐलान नहीं हुआ। सारा पैसा स्पेशल फंड में दे दिया गया।

नोबेल पुरस्कार समिति के कमेंट्स से ही पता चलता है कि गांधीजी ने एक बार राजा महेंद्र प्रताप की अपने अखबार यंग इंडिया में जमकर तारीफ की थी, गांधीजी ने लिखा था, “"For the sake of the country this nobleman has chosen exile as his lot। He has given up his splendid property।।।for educational purposes। Prem Mahavidyalaya।।।is his creation,"।

गांधीजी से उनके गहरे नाते की मिसाल देखिए, 32 साल बाद भारत आए तो सीधे उनसे मिलने जा पहुंचे, मद्रास से सीधे वर्धा। बावजूद इसके वो कांग्रेस में शामिल नहीं हुए। लेकिन उनकी हस्ती इस कदर बड़ी थी कि कांग्रेस तो कांग्रेस उस वक्त के जनसंघ के बड़े नेता और भावी पीएम अटल बिहारी वाजपेयी को भी लोकसभा के चुनावों में उन्होंने धूल चटा दी। वो 1952 में मथुरा से निर्दलीय सांसद बने और 1957 में फिर से अटल बिहारी वाजपेयी को हराकर निर्दलीय ही सांसद चुने गए। बिना किसी का अहसान लिए शान से राजा की तरह जीते रहे।

भारत का पहला पॉलिटेक्निक कॉलेज खोला

राजा महेंद्र प्रताप की उपलब्धियां यहीं कम नहीं होतीं, उनके खाते में भारत का पहला पॉलिटेक्निक कॉलेज भी है। अपने बेटे का नाम रखा उन्होंने प्रेम और वृंदावन में एक पॉलिटेक्निक कॉलेज खोला, जिसका नाम रखा प्रेम महाविद्यालय। राजा मॉर्डन एजुकेशन के हिमायती थे, तभी एएमयू के लिए भी जमीन दान कर दी।

देश की आजादी के बाद लोग मानते थे कि उनसे बेहतर कोई विदेश मंत्री नहीं हो सकता था, लेकिन उन्होंने किसी से कुछ मांगा नहीं और आमजन के लिए काम करते रहे। पंचायत राज कानूनों, किसानों और फ्रीडम फाइटर्स के लिए लड़ते रहे।

राजा जो भी काम करते थे, वो क्रांति के स्तर पर जाकर करते थे। जाट जाति व हिंदू घराने में वो पैदा हुए थे, मुस्लिम संस्था में वो पढ़े थे, यूरोप में तमाम ईसाइयों से उनके गहरे रिश्ते थे, सिख धर्म मानने वाले परिवार से उनकी शादी हुई थी। लेकिन उनको लगता था मानव धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है या सब धर्मों का सार ये है कि मानवीयता को, प्रेम को बढ़ावा मिलना चाहिए। 29 अप्रैल 1979 में उनका निधन हो गया।

1957 के लोक सभा चुनावों में अटल वाजेपयी को हरा चुके हैं

1957 के लोक सभा चुनावों में मथुरा लोकसभा सीट से राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में लगभग 4 लाख 23 हजार 432 वोटर थे। जिसमें 55 फीसदी यानि लगभग 2 लाख 34 हजार 190 लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। 55 फीसदी वोट उस वक्त पड़ना बड़ी बात होती थी। इस चुनाव में जीते निर्दलीय प्रत्याशी राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने भारतीय जन संघ पार्टी के उम्मीदवार अटल बिहारी वाजपेयी की जमानत तक जब्त करा दी थी। क्योंकि नियमानुसार कुल वोटों का 1/6 वोट नहीं मिलने पर जमानत राशि जब्त हो जाती है। अटल बिहारी इस चुनाव में 1/6 से भी कम वोट मिले थे। जबकि राजा महेंद्र प्रताप को सर्वाधिक वोट मिले और वह विजयी हुए। 


1957 के चुनाव नतीजे

1- राजा महेंद्र प्रताप सिंह 95202 वोट अनुपात 40 फीसदी निर्दलीय 
2- दिगंबर सिंह 69209 वोट अनुपात 29.6 फीसदी इंडियन नेशनल कांग्रेस 
3- पूरन सिंह 29,177 वोट अनुपात 12.5 फीसदी निर्दलीय 
4- अटल बिहारी बाजपेयी 23620 वोट अनुपात 10.1 फीसदी निर्दलीय 
5- सुग्रीव सिंह 8993 वोट अनुपात 3.8 फीसदी निर्दलीय
6- शंकर राव 7818 वोट 3.3 फीसदी निर्दलीय

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