जींद रैली : बीरेंद्र सिंह को कैसे कहा जाए दीनबंधु छोटूराम का राजनीतिक वारिस!
साल 1966 में हरियाणा के पहले 7 जिलों में जींद भी एक जिला बना था.
1 अगस्त 2019
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नया हरियाणा
जींद के सियासी इतिहास में झांक कर देखा जाए तो रियासत के दौर में 18 वीं शताब्दी में 1763 रियासत जींद के पहले राजा गणपत सिंह ने संगरूर से बदलकर जींद को रियासत की राजधानी बनाने के साथ यहां पक्की ईंटों का किला बनवाया था. किंतु बाद के राजाओं ने केवल आराम घर बनवाने पर ही अपना ध्यान केंद्रित रखा. सरस्वती नदी व तीर्थों का संगम जींद महाभारत का दक्षिणी द्वार कहलाता है. यहां पर पांडवों की सेना ने अपने पड़ाव डाले थे और यहीं से युद्ध की शुरुआत भी की थी. एकता और सियासत की हमेशा यहां चर्चा होती रही हैं.
जींद शुरू से ही चौधर की जंग का अखाड़ा बना हुआ है. साल 1966 में हरियाणा के पहले 7 जिलों में जींद भी एक जिला बना था. जो केवल राजनीति व रैलियों का ही गढ़ बन कर रह गया. बांगर की इस धरा पर चौधरी दलसिंह, चौधरी देवीलाल, चौधरी बंसीलाल के अलावा चौधरी बीरेंद्र सिंह, भूपेंद्र सिंह हुड्डा और ओम प्रकाश चौटाला जैसे सभी दिग्गजों ने जींद की भूमि से अपनी राजनीतिक भूमि तैयार की. हरियाणा का दिल कहे जाने वाले जींद के 2019 में हुए उपचुनाव ने हरियाणा के राजनीति के दिल और दिमाग दोनों को बदल दिया.
हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी ने कमर कसी हुई है. जबकि विपक्षी दल आपसी खींचतान में उलझे हुए हैं. जींद इन दिनों फिर से राजनीति के केंद्र में बना हुआ है. क्योंकि चौधरी बीरेंद्र सिंह ने 16 अगस्त 2019 को यहां रैली कर रहे हैं. क्योंकि 16 अगस्त को उन्हें भाजपा में शामिल हुए पूरे 5 साल हो गए हैं और इस अवसर पर वो जींद में एक विशाल रैली का आयोजन कर रहे हैं. इस मौके पर उन्होंने बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के केंद्र सरकार में गृहमंत्री बनने पर उनका रैली के माध्यम से अभिनंदन समारोह का आयोजन रखा है. बीरेंद्र सिंह का कहना है कि मैं अपने 17 हजार कार्यकर्ताओं के साथ 5 साल पहले जींद की धरती पर बीजेपी में शामिल हुआ था. उस रैली में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पहुंचे थे.
बीरेंद्र सिंह का हरियाणा की राजनीति में अपना विशेष योगदान रहा है और मुख्यमंत्री न बन पाने की कसक उनके भाषणों में गाहे-बे-गाहे झलकती रहती है. बीरेंद्र सिंह साल 2022 तक राज्यसभा सदस्य हैं और वह चुनाव लड़ने से मना कर चुके हैं. बीरेंद्र सिंह पांच बार 1977, 1982, 1994, 1996 व 2005 में उचाना से विधायक बन चुके हैं और तीन बार प्रदेश सरकार में मंत्री रहे हैं. 1984 में हिसार लोकसभा क्षेत्र से ओमप्रकाश चौटाला को हराकर सांसद बने थे. साल 2010 में कांग्रेस से राज्यसभा सदस्य बने थे, लेकिन 2014 में कांग्रेस से 42 साल पुराना नाता तोड़कर राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया था. इसके बाद भाजपा में शामिल हो गए थे. जून 2016 में भाजपा ने उन्हें दोबारा राज्यसभा में भेज दिया था. 2019 के लोकसभा चुनावों में अपने बेटे के लिए उन्होंने हिसार लोकसभा सीट मिलने पर सक्रिय चुनावी राजनीति से संन्यास लेने का ऐलान तो किया था, लेकिन ये ऐलान भर रह गया. उस समय इस तरह की चर्चाएं थी कि उन्होंने पहले अमित शाह और पीएम मोदी को चिट्ठी लिखकर कहा था कि अगर उनके बेटे को हिसार से उम्मीदवार बनाया जाता है तो वह केंद्रीय मंत्री के पद और राज्यसभा से की सदस्यता से इस्तीफा दे देंगे.
हालंकि बीरेंद्र सिंह पहले कह चुके हैं मैं कोई भी चुनाव नहीं लडूंगा लेकिन मैं चुनाव मैदान में किसी से दावेदारी जरूर कराउंगा. अब उनके द्वारा जींद में जो शक्ति प्रदर्शन किया जाएगा, उसको लेकर अलग-अलग मायनें निकाले जा रहे हैं. जींद में रैली के जरिये अपनी ताकत दिखाने के पीछे बीरेंद्र सिंह का उचाना से दोबारा पत्नी प्रेमलता के लिए टिकट हासिल करने की रणनीति से जोड़कर देखा जा रहा है. अगर ये टिकट उनकी पत्नी प्रेमलता को मिलती है तो एक घर में से ये तीसरी टिकट होगी और जिस परिवारवाद की राजनीति का भाजपा विरोध करती है, उसे ही बढ़ावा देती हुई साफ दिख रही है.
हरियाणा में बीजेपी लोकसभा चुनावों में 10 सीटों पर बंपर जीत के बाद जाट समाज के भीतर पार्टी की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए प्रयासरत दिख रही है. ऐसे में क्या चौधरी बीरेंद्र सिंह जींद रैली के माध्यम से खुद को जाटों के बड़े नेता के रूप में पोट्रेट करने का प्रयास कर रहे हैं या बीजेपी के भीतर दबाव की राजनीति को बनाए रखना चाहते हैं. बीरेंद्र सिंह जाट राजनीति का प्रत्यक्ष हिस्सा रहे हैं और जाट आरक्षण आंदोलन से जुड़े यशपाल मलिक के मंचों पर मौजूद रहे हैं, जिन मंचों से बीजेपी को खरी-खोटी सुनाई जाती रही है और धमकी भरे भाषण दिए गए हैं. ऐसे में बीरेंद्र सिंह जींद रैली के माध्यम से क्या राजनीतिक खेल खेल रहे हैं, इसको लेकर अलग-अलग कयास लगाए जा रहे हैं. पूर्व सीएम हुड्डा ने भले ही कांग्रेस के भीतर और जींद जिले में बीरेंद्र सिंह को मृत प्राय कर दिया था, परंतु बीजेपी में आते ही बीरेंद्र सिंह को मानो संजीवनी मिल गई और उन्होंने हरियाणा की राजनीति और बीजेपी के भीतर खुद की अहमियत को समझा और उसे हर समय भुनाया. इसी कड़ी में उनकी जींद रैली को बेहतर समझा जा सकता है. बीरेंद्र सिंह भले ही जनप्रिय नेता नहीं रहें हों, परंतु उन्होंने खुद को हरियाणा की राजनीति में हमेशा जीवंत बनाए रखा.
दीनबंधु छोटूराम के पारिवारिक वारिस होने का फायदा भले ही सारी उम्र बीरेंद्र सिंह को मिला हों, परंतु उन्होंने राजनीतिक जीवन में ऐसा कोई बड़ा योगदान नहीं दिया. जिसकी वजह से उन्हें दीनबंधु छोटूराम का राजनीतिक वारिस कहा जा सके.