2014 में भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने अच्छे मार्जन से जीत दर्ज की थी. उन्हें थोड़ी बहुत चुनौती इनेलो के सतीश कुमार नांदल ने दी थी. 2019 का विधानसभा चुनाव काफी रोचक होने की उम्मीद है, क्योंकि सतीश नांदल बीजेपी में शामिल हो गए हैं.
2014 का परिणाम
भूपेंद्र सिंह हुड्डा कांग्रेस 80693
सतीश नांदल इनेलो 33508
धर्मबीर हुड्डा बीजेपी 22101
2009 से पहले इस विधानसभा क्षेत्र का नाम किलोई था. लेकिन परिसीमन हुआ तो हसनगढ़ विधानसभा क्षेत्र को खत्म करके किलोई में विलय कर दिया गया. गढ़ी सांपला उस गांव का नाम है जहां स्वर्गीय दीनबंधु चौधरी छोटूराम का जन्म हुआ था . 1952 के पहले चुनाव में हसनगढ़ के नाम से कोई हलका था ही नहीं, बल्कि सांपला विधानसभा क्षेत्र था. सांपला से पहली बार जमींदार पार्टी के चौधरी मांडू सिंह विधायक चुने गए थे. 1957 में यहां से निर्दलीय सूरजभान व 1962 में हरियाणा लोक समिति पार्टी के चौधरी रामसरूप विधायक चुने गए. हरियाणा राज्य के पहले चुनाव 1967 में सांपला का नामकरण हसनगढ़ हो गया.
1967 में चौधरी छोटूराम के भतीजे चौधरी श्रीचंद विधायक बने. श्रीचंद साढे 3 महीने के लिए विधानसभा अध्यक्ष भी रहे. 1967 में ही विधानसभा अध्यक्ष पद पर रहते हुए उनका निधन हो गया. इस समय राव बिरेंदर सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. 1968 व 1972 के चुनाव में चौधरी मांडू सिंह विधायक चुने गए. 1977 में जनता पार्टी के संत कुमार ने विशाल हरियाणा पार्टी के महंत श्रीनाथ को पराजित किया. 1982 में चौधरी श्रीचंद की बेटी बसंती देवी लोकदल उम्मीदवार के रूप में यहां से जीती तो 1987 में लोक दल प्रत्याशी ओमप्रकाश भारद्वाज ने हसनगढ़ से जीत दर्ज की.
1991, 1996 व 2000 के तीनों चुनाव देवीलाल- चौटाला के प्रत्याशी बलवंत सिंह मायना ने जीते. पहले दो चुनावों में उन्होंने प्रोफेसर वीरेंद्र को हराया और तीसरे चुनाव में निर्दलीय नरेश मलिक को. 2005 में स्थानीय धनकुबेर नरेश मलिक भाजपा से चुनाव लड़े और उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी चक्रवर्ती शर्मा को भी हराया. 2005 में पूरे प्रदेश में भाजपा को केवल दो ही सीटों पर जीत हासिल हुई थी. इस दफा जीत की हैट्रिक बनाने वाले बलवंत मायना तीसरे स्थान पर रहे. जाट बहुल इस सीट पर केवल 1987 में ही कोई गैर जाट, ओमप्रकाश भारद्वाज ने चुनाव जीता था. यह चमत्कार भी केवल इसीलिए संभव हो पाया कि भारद्वाज को पंडित भगवत दयाल शर्मा ने ही चौधरी देवीलाल जी से टिकट दिलवाई थी और प्रदेश में देवीलाल के पक्ष में जबरदस्त आंधी चल रही थी. इस क्षेत्र से चुने गए विधायकों में केवल चौधरी मांडू सिंह ही मंत्री रहे.
किलोई विधानसभा क्षेत्र, जो कि 1967 में वजूद में आया था. इस चुनाव में रणबीर सिंह हुड्डा और अस्थलबोहर मठ के महंत श्रेयोनाथ के बीच टक्कर हुई. प्रदेश के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री भगवत दयाल शर्मा नहीं चाहते थे कि रणवीर सिंह चुनाव जीते और मुख्यमंत्री पद का एक और प्रबल दावेदार पैदा हो. इसीलिए भगवत दयाल ने ही महंत को निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़ा किया और रणवीर सिंह चुनाव हार गए. लेकिन लगभग 1 साल बाद हुए मध्यावधि चुनाव में रणवीर सिंह ने श्रेयोनाथ को हराकर अपनी हार का बदला लिया. 1972 में रणवीर सिंह की जगह उनके बेटे प्रताप सिंह ने चुनावी हुंकार भरी. लेकिन श्रेयोनाथ ने उन्हें हरा दिया. श्रेयोनाथ ने यह चुनाव संगठन कांग्रेस से लड़ा था. 1977 में रणवीर सिंह चुनाव में कूद पड़े और जनता पार्टी के हरिचंद हुड्डा के हाथों हार गए. रणबीर सिंह की यह अंतिम चुनावी जंग थी और इसके बाद वे राज्यसभा प्रस्थान कर गए. उनकी विरासत की पताका उनके छोटे बेटे भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने थाम ली. भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने 1982 में हरीचंद हुड्डा और 1987 में श्रीकृष्ण हुड्डा से मात खाई. दोनों बार मात देने वाले प्रत्याशी लोकदल के ही थे. वर्ष 1991 में कृष्णमूर्ति हुड्डा ने 23 साल बाद किलोई से कांग्रेस का परचम फहराया. उन्होंने जनता दल के श्रीकृष्ण हुड्डा को पराजित किया. 1996 में किलोई एक बार फिर कांग्रेस के हाथों से न केवल फिसल गई बल्कि तीसरे स्थान पर भी पहुंच गई. मुकाबला इनेलो और हरियाणा विकास पार्टी के बीच था. लेकिन 2000 में भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने पहली बार यहां से जीत हासिल की और तब से लेकर अब तक वह किलोई में अंगद के पैर की तरह अपना पैर जमाए हुए हैं.