विधानसभा चुनावों में रणदीप सुरजेवाला छोड़ सकते हैं रण!
वर्तमान समय में हरियाणा की राजनीति में मनोहर लाल हीरो बने हुए हैं तो पूर्व सीएम खलनायक की भूमिका में हैं.
26 जून 2019
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नया हरियाणा
हरियाणा में होने वाले विधानसभा चुनावों के नजरिए से बीजेपी की तैयारी से साफ लग रहा है कि उसे पिछली बार जिन जिलों में हार का सामना करना पड़ा था या हरियाणा की राजनीति में जिन्हें किसी नेता का गढ़ कहा जाता है, उन पर बीजेपी पूरी आक्रामकता व रणनीति के साथ हमला करने की तैयारी में है. साहित्य में मुक्तिबोध ने कहा है कि ‘तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब’, इसी टारगेट के साथ बीजेपी हरियाणा में आगे बढ़ रही है. कांग्रेस, इनेलो और जेजेपी तीनों ही पार्टियां व्यक्तियों के गढ़ के सहारे सत्ता का रास्ता तलाश रही हैं, जबकि बीजेपी ने व्यक्तिवाद व परिवारवाद से अलग हटकर पार्टी की नीतियों व कार्यशैली के साथ-साथ पार्टी के संगठन को मजबूती दी है. जिसका नेतृत्व आज भले ही मनोहर लाल कर रहे हैं, परंतु पार्टी की नीतियां यहां लंबा राज करने की लग रही हैं. इसीलिए बीजेपी की कार्यशैली व घोषणापत्र में चुनावी घोषणाएं कम से कम दिखेंगी और दूसरे बढ़-चढ़कर घोषणाएं करेंगे. जिस तरह कांग्रेस ने नेशनल लेवल पर 72 हजार रु देने की घोषणा की थी, जिसे जनता ने पूरी तरह नकार दिया.
हरियाणा की राजनीति में मौटे तौर पर सोनीपत, झज्जर व रोहतक को हुड्डा का गढ़, कैथल व कुरुक्षेत्र को सुरजेवाला का गढ़, भिवानी को बंसीलाल परिवार (किरण चौधरी) का गढ़, सिरसा व फतेहाबाद को इनेलो का गढ़, हिसार को भजनलाल परिवार का गढ़ माना जाता है. आज हम बात करेंगे रणदीप सुरजेवाला के गढ़ की. आखिर बीजेपी की तरफ से उनको किस तरह की चुनौती मिलने की संभावना इस बार बन रही है.
रणदीप सुरजेवाला कांग्रेस हाईकमान की नजर में भले की कद्दावर नेता हों, हरियाणा के एकाध जिले की कुछ सीटों को छोड़कर उनकी स्वीकार्यता कहीं नहीं है. रणदीप सुरजेवाला जमीनी नेता नहीं हैं, बल्कि पारिवारिक राजनीति की ही देन हैं. जींद जिले की नरवाना सीट दो दशक तक इनेलो के ओपी चौटाला व कांग्रेस के रणदीप सुरजेवाला के बीच कड़े मुकाबले के लिए सुर्खियों में बनी रही. दोनों के बीच 4 मुकाबलों में से दोनों ने 2-2 जीते. ओपी चौटाला ने 1993 उपचुनाव व 2000 में जीत हासिल की तथा सुरजेवाला ने 1996 में व 2005 में जीत हासिल की. 2008 में हुए परिसिमन में यह सीट आरक्षित हो गई. रणदीप सुरजेवाला के पिता शमशेर सिंह सुरजेवाला के गढ़ के रूप में सीट जानी जाती थी, उन्होंने 1967, 1977, 1982 व 1991 में यहां से जीत दर्ज की थी.
2005 में कैथल विधानसभा से शमशेर सिंह सुरजेवाला विधायक बनें और नरवाना सीट के आरक्षित होने के बाद 2009 व 2014 में रणदीप सुरजेवाला ने कैथल विधानसभा से जीत दर्ज की.
कैथल से कांग्रेस के विधायक व राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला की जींद उपचुनाव में जमानत जब्त होते-होते बची थी. जबकि कांग्रेस की तरफ से उस समय कहा जा रहा था कि कांग्रेस ने जींद उपचुनाव में सुरजेवाला को मैदान में उतारकर तुरुप का पत्ता चल दिया. जबकि चुनाव परिणाम ने कांग्रेस की रणनीति व सोच को उजागर कर दिया. इससे साफ हो गया कि कांग्रेस हरियाणा की जनता और राजनीति को समझने में कोई बड़ी चूक कर रही है. अन्यथा कैथल से विधायक रहते उन्हें दोबारा उपचुनाव में उतारना किसी भी नजरिए से समझदारी नहीं कही जा सकती. फिर भी कांग्रेस ने पता नहीं किस सोच के चलते उन्हें मैदान में उतारा. जींद उपचुनाव में तो करारी हार का सामना करना ही पड़ा, इसकी कीमत अब उन्हें आने वाले विधानसभा चुनाव में कैथल से भी चुकानी पड़ सकती है. दूसरी तरफ इस करारी हार ने कांग्रेसी की आपसी फूट के नैरेटिव को मजबूती प्रदान कर दी. कांटा निकालने वाली बात आमजन की जुबान पर चढ़ी हुई है.
2014 के विधानसभा चुनाव में रणदीप सुरजेवाला को 65524 वोट मिले थे और इनेलो के कैलाश भगत को 41849 वोट मिले थे. बीजेपी के सुरेंद्र सिंह को 38171 वोट मिले थे. कैलाश भगत ने इनेलो छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया. 2019 के लोकसभा चुनाव में कैथल विधानसभा से बीजेपी की जीत ने रणदीप सुरजेवाला के लिए खतरे की घंटी बजाई हुई है. क्योंकि कैलाश भगत कैथल के प्रसिद्ध व्यवसायी व लोकप्रिय नेता हैं. वहीं बीजेपी की पूरे हरियाणा में लहर है, जिससे कैथल अछूता नहीं है. ऐसे में कैथल में रणदीप सुरजेवाला की हार की चर्चाओं का बाजार अभी से गर्म हो गया है.
अनुमान तो यह भी लगाया जा रहा है कि इस बार कुरुक्षेत्र के सांसद नवीन जिंदल की तरह शायद सुरजेवाला भी चुनाव न लड़ें. नवीन जिंदल ने तो पारिवारिक कारण बताया था, हो सकता है रणदीप सुरजेवाला पीठ दर्द का बहाना लेकर इस बार मिलने वाली संभावित हार से बच जाएं. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर ने पहले ही विधानसभा चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया है.
हरियाणा में होने वाले विधानसभा चुनाव में इनेलो व जेजेपी तो परिवार के आपसी कलह के कारण पहले ही गेम से बाहर हो गई थी, विपक्ष के नाम पर जो कांग्रेस बची थी. उसके हालात देखकर यही लग रहा है कि उसने भी चुनाव से पहले अपनी हार मान ली है. अब तो ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस हाईकमान तमाम हारों को पूर्व सीएम भूपेंद्र हुड्डा के मत्थे मढ़कर नए सिरे से शुरूवात करने का इंतजार कर रहा है. कांग्रेस हुड्डा नामक अध्याय के बंद होने के इंतजार में ज्यादा लग रही है, क्योंकि कांग्रेस की तरफ से कोई सकारात्मक या सृजनात्मक बदलाव लंबे समय से हरियाणा में नहीं हुआ है. पार्टी का संगठन पूरी तरह बिखर चुका है, फिर भी पार्टी बिना किसी चिंता के उसी तरह ढर्रें पर चल रही है. ऐसे में दो ही वजहें हो सकती हैं कि या तो कांग्रेस अति आत्मविश्वास में राजनीति कर रही है या फिर हुड्डा युग के बीत जाने का इंतजार कर रही है.
हरियाणा में पूर्व सीएम हुड्डा कांग्रेस के लिए किसी बुरे सपने की तरह हो गए हैं. जिसे देखकर कांग्रेस न तो सपने से बाहर आ रही है और न ही सपने में चैन से रह पा रही है. जबकि हुड्डा बीजेपी के लिए रामबाण बने हुए हैं. भारत में तो बिना खलनायक के सिनेमा तक नहीं चलता राजनीति कैसे चलेगी. कुल मिलाकर वर्तमान समय में हरियाणा की राजनीति में मनोहर लाल हीरो बने हुए हैं तो पूर्व सीएम हुड्डा खलनायक की भूमिका में हैं. जिनके कारण बीजेपी हिट पर हिट नतीजे दे रही है.