5 अप्रैल,1929 को भगत सिंह ने सुखदेव के नाम ये विचारपूर्ण पत्र लिखा जिसे शिव वर्मा ने सुखदेव तक पहुंचाया । 13 अप्रैल, 1929 को सुखदेव की गिरफ्तारी के वक़्त इसे बरामद किया गया और अदालत में सबूत के तौर पर इस्तेमाल किया गया ।
प्रिय भाई,
जैसे ही यह पत्र तुम्हे मिलेगा, मैं जा चुका हूँगा -दूर एक मंजिल की ओर । मैं तुम्हें विश्वास दिलाना चाहता हूं कि मैं आज बहुत खुश हूं, हमेशा से ज्यादा। मैं यात्रा के लिए तैयार हूँ । अनेक-अनेक मधुर स्मृतियों के होते हुए भी और अपने जीवन की सब खुशियों के होते हुए भी एक बात मेरे मन में चुभ रही थी कि मेरे भाई, मेरे अपने भाई ने मुझे गलत समझा और मुझ पर बहुत ही गंभीर आरोप लगाया - कमज़ोरी । आज मैं पूरी तरह संतुष्ट हूँ, पहले से कहीं अधिक। आज मैं महसूस करता हूं कि वह बात कुछ भी नहीं थी, एक गलतफहमी थी, एक गलत अंदाज़ था । मेरे खुले व्यवहार को मेरा बातूनीपन समझा गया और मेरी आत्मस्वीकृति को मेरी कमज़ोरी परन्तु अब मैं महसूस करता हूँ कि कोई गलतफहमी नहीं, मैं कमजोर नहीं, अपनों में से किसी से भी कमज़ोर नहीं ।
भाई, मैं साफ दिल से विदा होऊंगा । क्या तुम भी साफ होगे ? यह तुम्हारी बड़ी दयालुता होगी, लेकिन ख़्याल रखना कि तुम्हें जल्दबाज़ी में कोई कदम नहीं उठाना चाहिए। गंभीरता और शांति से तुम्हें काम को आगे बढ़ाना है । जल्दबाज़ी में मौका पा लेने का प्रयत्न न करना। जनता के प्रति तुम्हारा कुछ कर्तव्य है, उसे निभाते हुए काम को निरंतर सावधानी से करते रहना ।
सलाह के तौर पर मैं कहना चाहूँगा कि शास्त्री मुझे पहले से ज्यादा अच्छे लग रहे हैं । मैं उन्हें मैदान में लाने की कोशिश करूँगा ; बशर्ते की वे स्वेच्छा से, और साफ़ साफ़-साफ़ बात यह है कि निश्चित रूप से, एक अँधेरे भविष्य के प्रति समर्पित होने को तैयार हों । उन्हें दूसरे लोगों के साथ मिलने दो और उनके हाव-भाव का अध्ययन होने दो । यदि वे ठीक भावना से अपना काम करेंगे तो उपयोगी और बहुत मूल्यवान् सिद्ध होंगे । लेकिन जल्दी न करना । तुम स्वयं अच्छे निर्णायक होगे । जैसी सुविधा हो, वैसी व्यवस्था करो । आओ भाई, अब हम बहुत खुश हो लें ।
खुशी के वातावरण में मैं कह सकता हूं कि जिस प्रश्न पर हमारी बहस है, उसमें अपना पक्ष लिए बिना रह नहीं सकता । मैं पूरे जोर से कहता हूं कि मैं आशाओं और आकांक्षाओं से भरपूर हूं और जीवन की आनंदमयी रंगीनियों ओत-प्रोत हूँ, पर आवश्यकता के समय पर सब कुछ कुर्बान कर सकता हूँ और यही वास्तविक बलिदान है । ये चीजें कभी मनुष्य के रास्ते में रुकावट नहीं बन सकतीं, बशर्ते कि वह मनुष्य हो । निकट भविष्य में ही तुम्हें प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाएगा ।
किसी व्यक्ति के चरित्र के बारे में बातचीत करते हुए एक बात सोचनी चाहिए कि क्या प्यार कभी किसी मनुष्य के लिए सहायक सिद्ध हुआ है? मैं आज इस प्रश्न का उत्तर देता हूँ – हाँ, यह मेज़िनी था। तुमने अवश्य ही पढ़ा होगा की अपनी पहली विद्रोही असफलता, मन को कुचल डालने वाली हार, मरे हुए साथियों की याद वह बर्दाश्त नहीं कर सकता था। वह पागल हो जाता या आत्महत्या कर लेता, लेकिन अपनी प्रेमिका के एक ही पत्र से वह, यही नहीं कि किसी एक से मजबूत हो गया, बल्कि सबसे अधिक मज़बूत हो गया।
जहां तक प्यार के नैतिक स्तर का संबंध है, मैं यह कह सकता हूं कि यह अपने में कुछ नहीं है, सिवाय एक आवेग के, लेकिन यह पाशविक वृत्ति नहीं, एक मानवीय, अत्यंत मधुर भावना है। प्यार अपने आप में कभी भी पाशविक वृत्ति नहीं है । प्यार तो हमेशा मनुष्य के चरित्र को ऊंचा उठाता है । तुम कभी भी इन लड़कियों को वैसी पागल नहीं कर सकते, जैसे कि फिल्मों में हम प्रेमियों को देखते हैं । वे सदा पाशविक वृत्तियों के हाथों खेलती हैं । सच्चा प्यार कभी भी गढ़ा नहीं जा सकता । यह अपने ही मार्ग से आता है, लेकिन कोई नहीं कह सकता कब ?
हाँ, मैं यह कह सकता हूँ कि एक युवक और एक युवती आपस में प्यार कर सकते हैं और वे अपने प्यार के सहारे अपने आवेगों से ऊपर उठ सकते हैं, अपनी पवित्रता बनाये रख सकते हैं । मैं यहाँ एक बात साफ़ कर देना चाहता हूँ की जब मैंने कहा था की प्यार इंसानी कमज़ोरी है, तो यह एक साधारण आदमी के लिए नहीं कहा था, जिस स्तर पर कि आम आदमी होते हैं । वह एक अत्यंत आदर्श स्थिति है, जहाँ मनुष्य प्यार-घृणा आदि के आवेगों पर काबू पा लेगा, जब मनुष्य अपने कार्यों का आधार आत्मा के निर्देश को बना लेगा, लेकिन आधुनिक समय में यह कोई बुराई नहीं है, बल्कि मनुष्य के लिए अच्छा और लाभदायक है। मैंने एक आदमी के एक आदमी से प्यार की निंदा की है, पर वह भी एक आदर्श स्तर पर । इसके होते हुए भी मनुष्य में प्यार की गहरी भावना होनी चाहिए, जिसे की वह एक ही आदमी में सिमित न कर दे बल्कि विश्वमय रखे ।
मैं सोचता हूँ, मैंने अपनी स्थिति अब स्पष्ट कर दी है ।एक बात मैं तुम्हे बताना चाहता हूँ की क्रांतिकारी विचारों के होते हुए हम नैतिकता के सम्बन्ध में आर्यसमाजी ढंग की कट्टर धारणा नहीं अपना सकते । हम बढ़-चढ़कर बात कर सकते हैं और इसे आसानी से छिपा सकते हैं, पर असल जिंदगी में हम झट थर-थर कांपना शुरू कर देते हैं।
मैं तुम्हे कहूँगा कि यह छोड़ दो। क्या मैं अपने मन में बिना किसी गलत अंदाज के गहरी नम्रता के साथ निवेदन कर सकता हूँ कि तुममे जो अति आदर्शवाद है, उसे ज़रा कम कर दो । और उनकी तरह से तीखे न रहो, जो पीछे रहेंगे और मेरे जैसी बिमारी का शिकार होंगे । उनकी भर्त्सना कर उनके दुखों-तकलीफों को न बढ़ाना । उन्हें तुम्हारी सहानुभूति की आवश्यकता है ।
क्या मैं यह आशा कर सकता हूं कि किसी खास व्यक्ति से द्वेष रखे बिना तुम उनके साथ हमदर्दी करोगे, जिन्हें इसकी सबसे अधिक ज़रूरत है ? लेकिन तुम तब तक इन बातों को नहीं समझ सकते जब तक तुम स्वयं उस चीज़ का शिकार न बनो । मैं यह सब क्यों लिख रहा हूं ? मैं बिल्कुल स्पष्ट होना चाहता था । मैंने अपना दिल साफ कर दिया है ।
तुम्हारी हर सफलता और प्रसन्न जीवन की कामना सहित -
तुम्हारा भाई
भगत सिंह
पराधीन भारत में भगतसिंह
आबोहवा ज़हर है
चारों तरफ़ कहर है
आलम नहीं है ऐसा
कि इश्क़ कर सकूँ मैं...
मैं तुझ पे मर तो जाता
पर क्या करूँ मेरीजां
हालात ऐसे ना हैं
कि तुझ पे मर सकूँ मैं...
ये ख़ून भीगी होली
ये सर कटी बैसाखी
ऐसे में तेरी चुनरी
क्या सूंघ पाऊँगा मैं...?
ये माँग उजड़ा टीका
ये सुन्न बैठी ममता
ऐसे में तेरे कंगन
क्या चूम पाऊँगा मैं...
ईसा की ले गवाही
गौतम की ले गवाही
हज़रत कबीर नानक
के मन की ले गवाही
मीरा क़सम है मुझ को
राधा क़सम है मुझ को
है दूसरा जनम तो
लेना जनम है मुझ को...
उस दूसरे जनम में
सिंदूर लाऊँगा मैं
तेरी कसम कि डोला
तेरा उठाऊँगा मैं....
साभार-सोशल मीडिया