बड़े घराने या बड़े नाम को जूते की नोंक पर भी नहीं रखता जींद का वोटर
लगातार दो बार विधायक रहे स्वर्गीय हरिचंद मिड्ढा ने वह सब मिथक तोड़े हैं जो आमतौर पर सियासत की पहलकदमी माने जाते हैं।
20 जनवरी 2019
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नया हरियाणा
भले ही राजाओं की धरती कहलाने वाली जींद की भूमि हमेशा चौधरियों ने अपने अपने चंगुल में फंसाए रखने की कोशिश की और वह इसमें कामयाब भी हुए। नाम और झंडे अलग रहे लेकिन कर्म सबके एक जैसे रहे। जींद की धरती का इतिहास रहा है कि यहां से कभी भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार ने जीत का मुंह नहीं देखा है। ठीक है अलग-अलग पार्टियों से चुनाव लड़ने होते हैं। जींद के धरती के दिग्गज नेता मांगेराम गुप्ता भले विधायक बने, मंत्री बने और ताकतवर नेता के रूप में जींद में अपनी छाप छोड़ी हो। 1967 से लेकर 2000 तक इस बीच ऐसा कोई विधायक जींद को नहीं मिला। जिसकी गूंज विधानसभा में भी हुई हो और जिसको हर एक आम आदमी ने अपने कानों से अपनी दुकानों या अपने प्रतिष्ठानों पर सुना हो। भले ही कहने सुनने में थोड़ा अटपटा लगता है किंतु सत्य है कि जींद के आम बाशिंदों की आवाज को बहुत कम जनप्रतिनिधियों ने सुना है। जींद में उपचुनाव है, सब जीतना चाहते हैं। मौजूदा भाजपा सरकार यह मौका छोड़ना नहीं चाहती। जिस पार्टी के पास लगातार दो बार यह सीट थी। वह भी छोड़ना नहीं चाहती और हाल ही में बनी पार्टी जननायक जनता पार्टी खुद को राजा मान कर चलने पर आमादा है। आज की तारीख में बहुत सारे राजनीतिक लोगों को इस रुप में महसूस हो रहा है। जिन्होंने अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि या भविष्य की रण भूमि के रूप में महसूस किया हो। लगातार दो बार विधायक रहे स्वर्गीय हरिचंद मिड्ढा क्यों विधायक बन पाए यह सोचने के पीछे के कारणों की समीक्षा करना हर एक के बस का नहीं है।
क्योंकि जींद जाटलैंड माना जाता है। यह जींद, वह जींद है, इस धरती पर हर पुराना नया राजनीतिक दल अपनी ताकत की ओर जोर आजमाइश करने में गर्व महसूस करता है। राजनीतिक लोग जींद को किस नजरिए से महसूस करते हैं और जींद को तरीके से इस्तेमाल करते हैं। यह छिपा किसी से नहीं है। जींद बरसों बरस या यह कहें कि हमेशा से ही चौधर के अलावा वास्तव में कभी कुछ चाहा ही नहीं। चौधर के रूप में जींद को किसने दिया क्या, यह जींद हर बार भूलता है। इस बात का इतिहास भी गवाह है बांगड़ की राजनीति के रूप में विख्यात जींद को कभी किसी जमाने में वीरेंद्र सिंह अपनी बपौती मानते थे। यह ठीक है कि प्रभाव उनका आज भी है परंतु भूपेंद्र हुड्डा की खिलाफत करते-करते वीरेंद्र सिंह आज की तारीख में भाजपा में होते वे भी इस मुकाम पर पहुंच चुके हैं कि अगर वह भाजपा के लिए जींद नहीं बचा सके तो वे बागड़ के चौधरी कैसे कहलाएंगे। अब बात आती है जींद उपचुनाव में खुद को हैवीवेट कहने वाले रणदीप सिंह सुरजेवाला की। राजनीति के जानकार लोगों को याद होगा कि इस रणदीप सिंह सुरजेवाला के पिता शमशेर सिंह सुरजेवाला कैथल के विधायक हुआ करते थे। बड़ा नाम था। बड़ी सौहरत थी लेकिन आखिरकार हासिल बदनामी हुई। खैर सियासत से नाम छोटे बड़े चलते हैं, चलते रहे हैं, चलते रहेंगे। इसमें अपने दादा चाचा को मिट्टी मिला देने की ख्वाहिश रखने वाले दुष्यंत-दिग्विजय एंज पार्टी भी अलहदा नहीं है। इन सारी चीजों को और इस सारे खेल तमाशे को ठीक से समझा जा पा रहा है।
कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता कहलाने वाले एवं जींद में कांग्रेस के प्रत्याशी रणदीप सिंह सुरजेवाला और हाल ही में बनी पार्टी जननायक जनता पार्टी के कैंडिडेट दिग्विजय सिंह चौटाला भले ही अपने आप को कितना भी 'तुर्मखां' मानते हो जींद की जनता तवज्जो देगी या रुला देगी। यह तो भविष्य के गर्भ में है किंतु यह तय है कि जींद जब चाहता है तो दिल से चाहता और सिर आंखों पर बैठता है। लगातार दो बार विधायक रहे स्वर्गीय हरिचंद मिड्ढा ने वह सब मिथक तोड़े हैं जो आमतौर पर सियासत की पहलकदमी माने जाते हैं।