राजकुमार सैनी के विनोद आसरी को जींद से बाहर बैठकर जितना दमदार समझा जा रहा है, वो उतना ही बोद्दा साबित हो रहा है. इसकी मजबूती में विपक्षी बीजेपी की हार देख रहे हैं. इसीलिए इसे काल्पनिक तौर पर इतना बड़ा बनाकर देख रहे हैं. वैसे भी दिन-ब-दिन ये घटता जाएगा. जैसे छोटे-बड़े भैया की पार्टी रोज घट रही है.
जेजेपी के पास जींद में दरअसल मूलधन नहीं है और ब्याज के भरोसे काम-धंधे नहीं चलते, ये तो राजनीतिक पार्टी है. समस्या ये भी है कि इनेलो गांव में अपने मूलधन को धीरे-धीरे पोटली में खींचने में सफल होती दिख रही है. उसकी पकड़ जेजेपी की अकड़ को ढीली करती चली जा रही है.
इसे देखकर बाहर से जींद गए जेजेपी के कार्यकर्ता अपने घरों की ओर लौटने लगे हैं और उनके लौटने की खबर सुनकर इनेलो के वर्कर एक्टिव हो रहे हैं.
जींद में जेजेपी के पास स्थानीय कार्यकर्ता कम है और बाहर से आयातित ज्यादा हैं. जिसके कारण पार्टी को जींद के लोग बोगस मानने लगे हैं और युवाओं के चेहरे से जोश फितूर होता चला जा रहा है.
रणदीप सुरजेवाला की सबसे ज्यादा चर्चा चुनाव लड़ने की शैली की हो रही हैं. उनके चुनाव प्रबंधन की सभी तारीफ कर रहे हैं. दूसरे पैसा लगाने में भी वो हिचकते नहीं. तीसरे नरवाना और कैथल के व्यापारी उसके लिए जींद में डेरा डाल चुके हैं. गली-गली नेता घूम ही रहे हैं. अब रणदीप सुरजेवाला के गांव व शहर दोनों जगह पैर जमने लगे हैं. जेपी का साथ नहीं आना सुरजेवाला को महंगा पड़ता दिख रहा है.
बीजेपी अपनी बढ़त को कांग्रेस के हाथों कम होती देख रही है. पर उसके चुनाव प्रचार में हड़बड़ी अभी दिखनी शुरू नहीं हुई है। बीजेपी की चुनाव लड़ने की शैली दूसरी पार्टियों से अलहदा है. जातिगत समीकरण साधने का उसका पैटर्न अभी विपक्ष पकड़ नहीं पा रहा है. विपक्षी पुराने तरीकों से चुनाव लड़ रहे हैं, जबकि बीजेपी ने बदलती परिस्थितियों के अनुरूप अपनी रणनीति बना रही है. कहींं पर नजरे कहीं पर निशाना-बीजेपी का मूलमंत्र बनता जा रहा है. बाकी पार्टिया नजरों के हिसाब से रणनीति बना रही हैं और बीजेपी निशाना कहीं ओर साध रही है.
जिस तेजी से जेजेपी का ग्राफ चढ़ा था, अब उसी गति से उतर भी रहा है. यह तो होना ही होता है. वो चाहे कोई भी पार्टी हो. और यह गलती इनेलो करती आई है जो अब जेजेपी कर रही है. इनेलो ने कम से कम जेजेपी के चक्कर में ही सही पर अपनी रणनीति बदली है और आक्रामकता व जोर आजमाइश को अंतिम समय के लिए बचाकर रखा हुआ है. जिसे वो ओमप्रकाश चौटाला के मैदान में आने पर भुना सकती है. खैर. ये दोनों पार्टियां परिवार की लड़ाई तक ही सिमटकर रह जाएगी, इस चुनाव में तो.