नशा और दवा , दोनों अलग-अलग ढंग से सामाजिक स्वीकृति और लांछन झेलते हैं।
इन दोनों को समझने के साथ दो शब्द और साथ ले लिये जाएँ : प्रकृति और प्रयोगशाला। नशा शब्द बोलते ही सामान्य व्यक्ति सतर्कता के साथ मौन निषेध प्रकट करने लगता है। कवि-कलाकार को उसमें कुछ उच्चतर अनुभूतियों की सम्भावनाएँ दिखने लगती हैं। प्रकृति कहते ही लगभग हर व्यक्ति श्रद्धा के साथ झुकने लगता है। प्रयोगशाला कहते ही परम्परावादी प्रकृतिप्रेमियों के चेहरों पर एक विकृतिभरा तिरस्कार उभर आता है।
परम्परावादी प्रकृतिप्रेमी कौन हैं ? वे जो प्रकृति से बिना जाने उससे प्रेम करते हैं , उसी तरह जिस तरह वे किसी स्त्री से बिना जाने उसे प्रेम करेंगे। जानने की बात की जाएगी , तो शब्द बरसाने लगेंगे। प्रेम-विषय का पक्ष नहीं सुनेंगे , उसकी व्यथा-कथा में तनिक रुचि नहीं लेंगे। उनके लिए प्रकृति माता है , चन्द्रमा नायिका है , पुष्प प्रिया-अधर हैं , कदली उसी के उरु हैं।
प्रेम का कर्तव्य-पक्ष बड़ी ऊर्जा लेता है। इतनी की कई बार शब्दों से ऊर्जा बचाकर काम में लगानी पड़ती है। बहुत लिखने के बाद बहुत कुछ करने-कर पाने का न विचार रह जाता है , न आचार। पेड़-पौधों से शाब्दिक प्रेम से अधिक उनकी रक्षा करनी है ,जीव-जन्तुओं को अपने ही व्यावसायिक लोभी साथियों से बचाना है।
परम्परावादी प्रकतिप्रेमियों के लिए प्रयोगशाला संस्कारों में पैठ ही नहीं पाती। उसमें उन्हें न कोई माता दिखती है , न प्रेमिका। वह तो मानव-निर्मित यन्त्रों का जमावड़ा है , जहाँ कुछ लोग नित्य नयी बातें सिद्ध करने में लगे रहते हैं। प्रेम तो शाश्वत होता है न ! आस्था का विषय शाश्वत होता है ! ईश्वर शाश्वत होता है ! और एक यह लैब है , जहाँ कुछ भी शाश्वत नहीं है। सो अगर यहाँ चिरता नहीं है , तो यह प्रेम के योग्य भी नहीं है।
धर्म के मूल में मौत को जीतने पर सारा ज़ोर है। हर पन्थ मृत्यु के बाद अमरता ढूँढ़ रहा है , अपने समूह के मनुष्यों को विशिष्ट बता रहा है। मृत्यु से पार निकलना विशिष्टता है , और इसमें हमारा वाला धर्म आपकी मदद करेगा।
मगर यह प्रयोगशाला ? यह तो कहती है कि मृत्यु साधारण है , क्योंकि जीवन साधारण है। हर मनुष्य साधारण है , हर जीवन साधारण है। पृथ्वी साधारण है , सूर्य साधारण है। साधारण को स्वीकार करो : जियो और मिट जाओ। अमरता की तलाश केवल सायकोलॉजी का झोल है ! लोगों को इसके नाम पर बुड़बक बनाया जा रहा है !
तो नशे का प्रकृति से क्या सम्बन्ध है ? और फिर प्रयोगशाला से ? और फिर दवा से ये तीनों कैसे जुड़े हैं ? सत्य यह है कि नशा एक रसायन-मात्र है , दवा भी। बहुत से नशीले पदार्थों ने अतीत में दवाओं की भूमिका निभायी है , ढेरों आज भी निभा रहे हैं। प्रकृति में तमाम नशाकारक पदार्थ पाये जाते हैं और नशे के व्यापारी जिन तमाम दलीलों का प्रयोग इन्हें बेचने के लिए करते हैं , उनमें एक यह भी है : "इट्स कम्प्लीटली नैचुरल।"
नैचुरल होना ढेरों सिर झुका देगा , त्यौरियाँ सीधी कर देगा। लोग नेचर की वस्तुओं को प्रसाद मानते हैं , माथे पर लगाकर खा लेंगे। लेकिन प्रयोगशाला के बगल से नाक दबा कर निकल जाएँगे। बिना यह जाने कि उसी नशे से कुछ बेहतर काम लेने के लिए विज्ञान उसके साथ प्रयोगरत है।
अफ़ीम लत पैदा करती है , भाँग भी। विज्ञान उन्हें पढ़ता है , समझता है। उनके साथ प्रयोग करके ऐसे रसायन बनाता है , जो लाभ तो अफ़ीम-भाँग-से दें , लत न लगाएँ। नशे पर निर्भरता नष्ट करनी है : इसी सोच के साथ वह नशे से मिलती-जुलती कोई दवा बनाता है।
नशा मस्तिष्क के पुरस्कार-केन्द्रों को उत्तेजित करता है। पुरस्कृत होना हर व्यक्ति चाहता है : जिमि प्रतिलोभ लाभ अधिकाई। दवा पुरस्कार नहीं है , वह मात्र आवश्यकता है। विज्ञान पुरस्कार को सुरक्षित आवश्यकता नहीं मानता : अक्सर पुरस्कार अपने साथ और बड़ी भूख , और बड़ा लोभ संग लाते हैं।
दवा आपको अगर पुरस्कार देने लगे , तो वह नशा है। नशा अगर पुरस्कार देना बन्द करके केवल आवश्यकता की पूर्ति करे , तो वह दवा है। पुरस्कार आवश्यकता नहीं है : वह उच्चता का जोखिम-भरा सुख है, जहाँ से एक दिन गिरना होगा। और जब गिरना होगा , तो चोट बहुत लगेगी।
सदा सुखी कोई हो नहीं सकता , सदा उच्चता मिल नहीं सकती। इसीलिए पुरस्कार-वृत्ति से दूरी ज़रूरी हो जाती है। आवश्यकताएँ सदा रहेंगी , उतना-भर ही लेना स्वास्थ्य के लिए हितकर है। सीमाओं में ही जीवन है। निःसीमता विस्फोटक है।
प्रकृति तटस्थ है : नशे और दवा में बिना भेद किये। प्रयोगशाला मनोयोग से नशे में दवा ढूँढ़ रही है। अगर दवा में नशा मिल रहा है , तो उसे कूड़े में फेंक रही है। इन दोनों से थोड़ी दूरी पर बाज़ार खड़ा है : इस सोच के साथ कि पुरस्कार और आवश्यकता , दोनों को कब-कैसे-कहाँ बेचा जाए। बाज़ार सबसे बड़ा नशेड़ी है।
( चित्र इंटरनेट से साभार। )