किसान नेता चौधरी चरण सिंह को इंदिरा गाँधी ने नहीं बनने दिया प्रधानमंत्री
चरण सिंह भाई-भतीजावाद, और भ्रष्टाचार को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करने के लिए जाने जाते हैं।
23 दिसंबर 2017
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नया हरियाणा
चौं चरण सिंह भाई-भतीजावाद, और भ्रष्टाचार को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करने के लिए जाने जाते हैं. किसानों की स्थिति ठीक करने पर चौधरी चरण सिंह बहुत जोर दिया करते थे। वे एक कद्धावर किसाना नेता के तौर पर जाने जाते थे साथ ही वे समाजसेवी और स्वतंत्रता सेनानी थे। वे भाई-भतीजावाद, और भ्रष्टाचार को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करने के लिए जाने जाते थे। चौधरी चरण सिंह ने गांव के जिस परिवेश में आंख खोली, वहां व्याप्त थी भयानक गरीबी और शोषणवादी व्यवस्था। एक ओर दिन रात खेत में खटता किसान और मजदूर और दूसरी ओर किसान के खून पसीने की फसल को कौडियों के भाव लगातार समृद्ध होता बिचौलिया। इस व्यवस्था को चौधरी चरण सिंह ने बदलने के लिए काम किया।
प्रधानमंत्री पद की दौड़ और इंदिरा गांधी की राजनीति
चौधरी चरण सिंह एक भारतीय राजनेता और देश के पांचवे प्रधानमंत्री थे। भारत में उन्हें किसानों की आवाज़ बुलन्द करने वाले नेता के तौर पर देखा जाता है। हालांकि वे भारत के प्रधानमंत्री बने पर उनका कार्यकाल बहुत छोटा रहा। प्रधानमंत्री बनने से पहले उन्होंने भारत के गृह मंत्री और उप-प्रधानमंत्री के तौर पर भी कार्य किया था। वे दो बार उत्तर प्रदेश राज्य के मुख्यमंत्री भी रहे और उसके पूर्व दूसरे मंत्रालयों का कार्यभार भी संभाला था। वे महज 5 महीने और कुछ दिन ही देश का प्रधानमंत्री रह पाए और बहुमत सिद्ध करने से पहले ही त्यागपत्र दे दिया।
प्रधानमंत्री पद पर
जनता पार्टी में आपसी कलह के कारण मोरारजी देसाई की सरकार गिर गयी जिसके बाद कांग्रेस और सी. पी. आई. के समर्थन से चरण सिंह ने 28 जुलाई 1979 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने उन्हें बहुमत साबित करने के लिए 20 अगस्त तक का वक़्त दिया पर इंदिरा गाँधी ने 19 अगस्त को ही अपने समर्थन वापस ले लिया इस प्रकार संसद का एक बार भी सामना किए बिना चौधरी चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। राष्ट्रपति ने 22 अगस्त, 1979 को लोकसभा भंग करने की घोषणा कर दी. लोकसभा का मध्यावधि चुनाव हुआ और इंदिरा गांधी 14 जनवरी, 1980 को प्रधानमंत्री बन गईं।
यह सब इतनी जल्दी कैसे हो गया? इसके लिए कौन जिम्मेदार थे? किसे किसने ठगा और किसे इसका राजनीतिक लाभ मिला? यह सब बताना तो इतिहास लेखकों का काम है,पर मोटा-मोटी कुछ बातें समझ में आ जाती हैं. इंदिरा गांधी और संजय गांधी ने चरण सिंह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का पूरा राजनीतिक लाभ उठाया. संजय गांधी तभी से राज नारायण से सीधे संपर्क में थे जब मोरार जी देसाई और चरण सिंह में खटपट शुरू हो गई थी. पर चरण सिंह भी एक हद से अधिक समझौते नहीं कर सकते थे. उनके भी कुछ उसूल थे जिससे वो कभी डिगते नहीं थे.
इंदिरा गांधी का एक बड़ा राजनीतिक उद्देश्य पूरा हो चुका था. उन्होंने जनता नेताओं की पदलोलुपता और फूट को जनता के सामने प्रदर्शित कर दिया. 1977 में लोगों में जनता पार्टी के नेताओं के लिए जैसी इज्जत की भावना थी, वह कम हो गई. इससे कांग्रेस की सत्ता में वापसी का रास्ता साफ हो गया. लेकिन चरण सिंह अपनी सरकार के चले जाने का कारण इन शब्दों में बताया था. चरण सिंह ने तब बताया था, 'मुझे इंदिरा गांधी के बारे में गलतफहमी कभी नहीं थी. चरण सिंह ने यह भी कहा, 'यह देश हमें कभी माफ नहीं करता यदि कुर्सी से चिपके रहने के लिए मुकदमे उठा लेते जो इमरजेंसी के अत्याचारों के लिए जिम्मेदार थे. मैं ब्लैकमेल की राजनीति स्वीकार कर एक दिन भी सत्ता में नहीं रह सकता.'
राजनैतिक जीवन
कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन (1929) के बाद उन्होंने गाजियाबाद में कांग्रेस कमेटी का गठन किया और सन 1930 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान ‘नमक कानून’ तोड़ने चरण सिंह को 6 महीने की सजा सुनाई गई। जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने स्वयं को देश के स्वतन्त्रता संग्राम में पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया। सन 1937 में मात्र 34 साल की उम्र में वे छपरौली (बागपत) से विधान सभा के लिए चुने गए और कृषकों के अधिकार की रक्षा के लिए विधानसभा में एक बिल पेश किया। यह बिल किसानों द्वारा पैदा की गयी फसलों के विपड़न से सम्बंधित था। इसके बाद इस बिल को भारत के तमाम राज्यों ने अपनाया।
सन 1940 में गांधी जी द्वारा किये गए ‘व्यक्तिगत सत्याग्रह’ में भी चरण सिंह को गिरफ्तार किया गया जिसके बाद वे अक्टूबर 1941 में रिहा किये गये। सन 1942 के दौरान सम्पूर्ण देश में असंतोष व्याप्त था और महात्मा गाँधी ने ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के माध्यम से ‘करो या मरो’ का आह्वान किया था। इस दौरान चरण सिंह ने भूमिगत होकर गाजियाबाद, हापुड़, मेरठ, मवाना, सरथना, बुलन्दशहर आदि के गाँवों में घूम-घूमकर गुप्त क्रांतिकारी संगठन तैयार किया। पुलिस चरण सिंह के पीछे पड़ी हुई थी और अंततः उन्हें गिरफतार कर लिया गया। ब्रिटिश हुकुमत ने उन्हें डेढ़ वर्ष की सजा सुनाई। जेल में उन्होंने ‘शिष्टाचार’, शीर्षक से एक पुस्तक लिखी।
स्वाधीनता के बाद
चौधरी चरण सिंह ने नेहरु के सोवियत-पद्धति पर आधारित आर्थिक सुधारों का विरोध किया क्योंकि उनका मानना था कि सहकारी-पद्धति की खेती भारत में सफल नहीं हो सकती। एक किसान परिवार से संबंध रखनेवाले चरण सिंह का ये मानना था कि किसान का जमीन पर मालिकाना हक़ होने से ही इस क्षेत्र में प्रगति हो सकती है। ऐसा माना जाता है की नेहरु के सिद्धान्तों का विरोध का असर उनके राजनैतिक करियर पर पड़ा।
देश की आज़ादी के बाद चरण सिंह 1952, 1962 और 1967 के विधानसभा चुनावों में जीतकर राज्य विधानसभा के लिए चुने गए। पंडित गोविन्द वल्लभ पंत की सरकार में इन्हें ‘पार्लियामेंटरी सेक्रेटरी’ बनाया गया। इस भूमिका में इन्होंने राजस्व, न्याय, सूचना, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य आदि विभागों में अपने दायित्वों का निर्वहन किया। सन 1951 में इन्हें उत्तर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री का पद दिया गया जिसके अंतर्गत उन्होंने न्याय एवं सूचना विभाग का दायित्व सम्भाला। सन 1952 में डॉक्टर सम्पूर्णानंद के सरकार में उन्हें राजस्व तथा कृषि विभाग की जिम्मेदारी प्राप्त हुई। चरण सिंह स्वभाव से भी एक किसान थे अतः वे किसानों के हितों के लिए लगातार प्रयास करते रहे। सन 1960 में जब चंद्रभानु गुप्ता उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तब उन्हें कृषि मंत्रालय दिया गया।
चरण सिंह ने सन 1967 में कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और एक नए राजनैतिक दल ‘भारतीय क्रांति दल’ की स्थापना की। राज नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे नेताओं के सहयोग से उन्होंने उत्तर प्रदेश में सरकार बनाया और सन 1967 और 1970 में प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।
सन 1975 में इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल घोषित कर दिया और चरण सिंह समेत सभी राजनैतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया। आपातकाल के बाद हुए सन 1977 के चुनाव में इंदिरा गाँधी की हार हुई और केंद्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में ‘जनता पार्टी’ की सरकार बनी। चरण सिंह इस सरकार में गृह मंत्री और उप-प्रधानमंत्री रहे।