उचाना विधान सभा सीट का इतिहास और दुष्यंत चौटाला की पहली हार
2014 के लोकसभा चुनाव में हिसार से सांसद बनने के बाद दुष्यंत चौटाला उचाना से विधानसभा चुनाव हार गए थे.
8 दिसंबर 2018
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नया हरियाणा
हाल के चुनावों में राज्य की सबसे हॉट सीट बनकर उभरी है- जींद जिले की उचाना सीट। जैसा रोमांच और सस्पेंस 1993 के बाद से पास की नरवाना सीट पर रहता था कुछ वैसा ही 2009 में उचाना सीट पर रहने लगा। दरअसल, 2008 के परिसीमन में नरवाना सीट रिजर्व हो गई तो इनेलो प्रमुख ओमप्रकाश चौटाला चुनाव लड़ने उचाना आ गए। वरिष्ठ कांग्रेस नेता बीरेंद्र सिंह की सीट यह थी। 2009 और 2014 के चुनाव में उचाना बीरेंद्र और चौटाला के परिवारों के बीच कांटे की टक्कर के लिए सबकी निगाहों में रहा।
दीनबंधु सर छोटूराम के दोहते बीरेंद्र सिंह ने इस बार खुद चुनाव लड़ने की बजाय अपनी पत्नी प्रेमलता को चुनाव लड़वाया था। 40 साल तक कांग्रेस की राजनीति करने के बाद बीरेंद्र सिंह चुनाव से कुछ महीने पहले ही भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए थे। बीरेंद्र सिंह ने उचाना से कुल 7 चुनाव लड़े जिनमें से 5 बार वे जीते और एक बार इनेलो के भाग सिंह छातर और एक बार इनेलो प्रमुख ओमप्रकाश चौटाला से उन्हें पराजय मिली। बीरेंद्र सिंह ने तीन बार हिसार से लोकसभा का चुनाव भी लड़ा। 1984 में वे लोकदल के ओम प्रकाश चौटाला को हरा कर लोकसभा पहुंचे थे। 1989 में उन्हें जनता दल के जयप्रकाश और 1999 में इनेलो के सुरेंद्र बरवाला के हाथों हिसार लोकसभा में हार मिली थी। बीरेंद्र सिंह 1982 और 1991 में भजनलाल सरकार और 2005 में भूपेंद्र सिंह हुड्डा की सरकार में मंत्री रहे। जैसे बीरेंद्र सिंह ने राजनीतिक जीवन की शुरुआत अपना पहला विधानसभा चुनाव नरवाना से लड़कर की थी। 1972 में कांग्रेस की टिकट पर लड़े इस चुनाव में बीरेंद्र तीसरे स्थान पर रहे थे। इसके बाद उचाना ब्लॉक समिति में चुने गए और चेयरमैन बने। इसके बाद वे जींद जिला युवा कांग्रेस और जिला कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। बीरेंद्र सिंह ने 1982 में प्रदेश युवा कांग्रेस की कमान संभाली। इसके अलावा 1985-86 और 1990-92 में वे हरियाणा कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। बीरेंद्र सिंह ने मूल रूप से कांग्रेस पार्टी की ही राजनीति की। हालांकि 90 के दशक में वे कुछ समय के लिए कांग्रेस से अलग हुई कांग्रेस (तिवारी) में भी गए थे। जिसका कांग्रेस में ही विलय हो गया था। 1996 का विधानसभा चुनाव बीरेंद्र ने कांग्रेस (तिवारी) के निशान पर ही जीता था। बीरेंद्र सिंह के लिए 1991 का विधानसभा चुनाव एक मील के पत्थर की तरह है। जब उनके प्रदेश अध्यक्ष होते हुए कांग्रेस पार्टी ने बहुमत हासिल किया था। लेकिन राजीव गांधी के निधन की वजह से मुख्यमंत्री पद के लिए बीरेंद्र सिंह की दावेदारी कमजोर पड़ गई और भजनलाल प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। इसके कुछ समय बाद वे कांग्रेस (तिवारी) में गए। लेकिन बाद में वापस कांग्रेस में आ गए। बीरेंद्र सिंह के पिता चौधरी नेकीराम 1952 में उचाना और 1954 में नरवाना से कृषिकार लोक पार्टी की टिकट से विधानसभा चुनाव हारे। जबकि 1968 में वे कांग्रेस की टिकट पर नरवाना से विधायक बने।
Year
A.C No.
AC. Name
Type of A.C.
Winner
Sex
Party
Votes
Runner-UP
Sex
Party
Votes
1977
46
Uchana Kalan
GEN
Birender Singh
M
INC
12120
Ranbir Singh
M
JNP
10488
1982
46
Uchana Kalan
GEN
Birender Singh
M
INC
30031
Desh Raj
M
IND
20225
1985
By Polls
Uchana Kalan
GEN
S.Singh
M
INC
34375
I.Singh
M
LKD
24904
1987
46
Uchana Kalan
GEN
Desh Raj
M
LKD
55361
Sube Singh
M
INC
10113
1991
46
Uchana Kalan
GEN
Virendar Singh
M
INC
31937
Des Raj
M
JP
23093
1996
46
Uchana Kalan
GEN
Birender Singh
M
AIIC(T)
21755
Bhag Singh
M
SAP
17843
2000
46
Uchana Kalan
GEN
Bhag Singh
M
INLD
39715
Birender Singh
M
INC
32773
2005
46
Uchana Kalan
GEN
Birender Singh
M
INC
47590
Des Raj
M
INLD
34758
2009
37
Uchana Kalan
GEN
Om Parkash Chautala
M
INLD
62669
Birender Singh
M
INC
62048
2009 का विधानसभा चुनाव हारना बीरेंद्र सिंह के लिए बड़ा झटका था। क्योंकि उस चुनाव में कांग्रेस बहुमत से थोड़ा पीछे रह गई थी और जीतने की सूरत में वे भूपेंद्र सिंह हुड्डा की लोकप्रियता कम होने की बात कह मुख्यमंत्री पद के लिए अपना दावा रख सकते थे। इसके बाद बीरेंद्र ने कांग्रेस के केंद्रीय संगठन में राष्ट्रीय महासचिव का महत्वपूर्ण पद ले लिया और 2010 में राज्यसभा में चले गए। इस दौरान यूपीए की दूसरी पारी में बीरेंद्र के केंद्रीय मंत्री बनने का भी एक अवसर आया। लेकिन आखिरी वक्त पर मनाही हो गई। इसके बाद बीरेंद्र का मन कांग्रेस से भर गया और अगस्त 2014 में वे आखिरकार भाजपा में आ गए । उन्होंने पहले जींद में एक कार्यक्रम कर अपनी पत्नी प्रेमलता और समर्थकों को भाजपा में शामिल करवाया और बाद में एक अन्य कार्यक्रम में खुद भी भाजपा ज्वाइन कर ली। उनकी पत्नी प्रेमलता का 2014 में पहला विधानसभा चुनाव था और शुरुआत में कड़े दिखने वाले मुकाबले को उन्होंने अच्छे अंतर से जीत लिया। 2009 में बीरेंद्र सिंह को 46.34% वोट मिले थे जबकि 2014 में प्रेमलता को 49.18% वोट मिले।
उचाना सीट पर दशकों से कांग्रेस का जनाधार स्पष्ट तौर पर बीरेंद्र सिंह का ही वोट बैंक था। इसका प्रमाण इस बात से मिला जब 2014 चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार भाग सिंह छातर को सिर्फ 1.13% वोट मिले। यह पूरे हरियाणा में कांग्रेस का सबसे खराब प्रदर्शन था और किसी सीट पर न्यूनतम वोट प्रतिशत था। इस सीट पर बीरेंद्र सिंह के दबदबे का ही असर है कि आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव में कांग्रेस पार्टी को हरियाणा की 90 में से 3 सीटों पर ही जीत मिली थी। जिनमें से एक उचाना में बीरेंद्र सिंह की जीत थी। इसके अलावा पास की नरवाना सीट से शमशेर सिंह सुरजेवाला और छछरौली से कन्हैया लाल पासवान भी जीते थे।
1972 से चुनावी राजनीति की शुरुआत करने के बाद 42 साल के करियर में बीरेंद्र सिंह के लिए यह सिर्फ दूसरा मौका था जब उन्होंने विधानसभा का आम चुनाव नहीं लड़ा था। 1984 में सांसद बनने के बाद 1987 में भी उन्होंने विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा था। उनके सांसद बनने के बाद 1985 में उचाना में उपचुनाव भी हुआ था इन दोनों चुनावों में कांग्रेस के उम्मीदवार सूबे सिंह पुनिया थे।
इनेलो की तरफ से 2009 में ओम प्रकाश चौटाला के उचाना से लड़ने के बाद यहां चुनाव गरमाने लगे थे। बेहद कड़े मुकाबले में बीरेंद्र सिंह को 621 वोटों से हराकर ओम प्रकाश चौटाला ने प्रदेश की राजनीति में नया अध्याय जोड़ दिया था। 2014 में जेल में होने के कारण ओम प्रकाश चौटाला चुनाव नहीं लड़ सकते थे तो पार्टी ने उनके पौत्र और अजय सिंह चौटाला के बेटे दुष्यंत चौटाला को उचाना से चुनाव में उतार दिया। दुष्यंत चौटाला कुछ ही महीने पहले हिसार लोकसभा सीट से हजका के कुलदीप बिश्नोई को हराकर सांसद बने थे। ऐसे में उनका विधानसभा चुनाव भी लड़ना शुरुआत से इन आशंकाओं से घिर गया था कि जीतने की सूरत में वह कहां से इस्तीफा देंगे, लोकसभा से या विधानसभा से। इन्हीं आशंकाओं के बीच दुष्यंत ने मोदी लहर के खिलाफ चुनाव लड़ा और वोट प्रतिशत में आई मामूली कमी की वजह से ही हार गए। प्रेमलता और उनके वोटों में करीब 7500 वोटों का अंतर था। 2009 में ओमप्रकाश चौटाला को 46.81% वोट मिले थे जबकि 2014 में दुष्यंत को 44.56% वोट मिले थे।
दुष्यंत चौटाला को मिले वोट इस विधानसभा चुनाव में हारने वाले किसी उम्मीदवार को मिले सबसे ज्यादा वोट प्रतिशत थे। इस मायने में 2009 में हार के बावजूद बीरेंद्र सिंह को मिला वोट प्रतिशत हरियाणा के इतिहास में हारने वाले उम्मीदवार का रिकॉर्ड हो जाता है। इस सीट पर प्रेमलता और दुष्यंत के बीच इस कदर सीधा मुकाबला था कि कोई और उम्मीदवार 2% वोट भी नहीं ले पाया। 2009 में भी यही हाल था और तीसरे नंबर पर आई बसपा उम्मीदवार को 2.4% वोट ही मिले थे। बीरेंद्र सिंह के भाजपा में जाने की बदौलत इस पार्टी को भी पहली बार उचाना के इतिहास में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने का अवसर मिला। जबकि इससे पहले भाजपा यहाँ कभी मुकाबले में भी नहीं आई थी।