महाराजा •भर्तृहरि की प्रसिद्ध उक्ति है :
परिवर्तिनि संसारे मृत: को वा न जायते।
स जातो येन जातेन याति वंश: समुन्नतिम।
इस परिवर्तनशील संसार में जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है। लेकिन जन्म लेना उसी का सार्थक है, जो अपने कार्यों से कुल, समाज और राष्ट्र को प्रगति के मार्ग पर अग्रसर करता है। चौधरी मित्रसेन आर्य ने इस उक्ति को अक्षरश: चरितार्थ किया है।
सत्य, संयम और सेवा के अद्भुत सम्मिश्रण चौधरी मित्रसेन के लिए सदैव मानव हित सर्वोपरि रहा। उनके जीवन का लक्ष्य स्पष्ट था। उनकी जीवन पद्धति तय थी-जो सबके हित में हो और स्वयं के लिए भी सुख देने वाला हो-ऐसा आचरण करो।
जीवन पर्यंत इसी आदर्श पर चलने और समाज को एक दृष्टि व दिशा देने वाले चौधरी मित्रसेन राजनैतिक रूप से आज भले ही हमारे बीच नहीं रहे हों, लेकिन उनके विचार, कार्य और उनकी दृष्टि हमें युगों-युगों तक आलोकित करते रहेंगे।
दुनिया में कुछ ही विरले लोग ऐसे होते हैं, जो अपने सत्कर्मों के पद चिन्ह छोड़ जाते हैं, जो दूसरों के लिए हमेशा अनुकरणीय होते हैं। चौधरी मित्रसेन ऐसे ही व्यक्तित्व थे, जिन्होंने जीवनभर ऐसे कार्य किए जो मिसाल बने रहेंगे।
गृहस्थ और व्यवसायी होते हुए भी उन्होंने अपने जीवन में ऐसे आदर्श स्थापित किए जिन्हें यदि हम अपना लें तो रामराज्य की कल्पना साकार की जा सकती है। और यह अतिश्योक्ति नहीं बल्कि उनके जीवन का सच है। उन्होंने कहा था- हमें हर कार्य को करने से पहले यह जांच लेना चाहिए कि इसके करने से सबका हित होगा या नहीं। यदि व्यक्तिगत रूप से लाभ लेने वाला कोई कार्य समाज के लिए अहितकर है तो उसे नहीं करना चाहिए। चौ. मित्रसेन के आदर्श जीवन का आधार उनके पूर्वजों के संस्कार थे। वे हंसते-हंसते पुरुषार्थ करने में विश्वास रखते थे।
15 दिसंबर 1931 को उनका जन्म हिसार जिले के खांडा खेड़ी गांव में चौधरी शीशराम आर्य के घर में माता जीयो देवी की कोख से हुआ। उनका परिवार आर्थिक रूप से भले ही साधारण था, लेकिन वैचारिक रूप से समृद्ध था। आपके परदादा चौ. शादीराम के भाई चौ. राजमल जैलदार स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों के सहयोगी थे। शहीदेआजम भगतसिंह उनके यहां आया करते थे। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के साथ ही चौ. राजमल जैलदार ने आर्य समाज और शिक्षा को बढ़ावा दिया।
उन्हीं के प्रयासों से 1913 में खांडा खेड़ी में पहला स्कूल खुला। उस समय गांव में दूर-दूर तक कोई स्कूल नहीं होता था। चौ. मित्रसेन आर्य के पिता चौ. शीशराम आर्य ने भी आर्यसमाज को पोषित किया। कर्म में उनका गहरा विश्वास था। उन्होंने यही संस्कार चौ. मित्रसेन आर्य को भी दिए। इनका असर जीवनभर उनके ऊपर रहा।
जब चौ. मित्रसेन आर्य केवल 8-9 वर्ष के थे तभी परिवार विपत्तियों से घिर गया। उनके पिता की काला मोतिया के कारण आंखों की रोशनी चली गई। परिवार की आर्थिक स्थिति खराब हो गई। नजीतन चौ. मित्रसेन को तीसरी कक्षा में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी। परिवार की जिम्मेदारी बड़े भाई चौ. बलबीर सिंह और उनके कंधे पर आ गई। गुजारे के लिए उन्होंने खेती शुरू की।
गायों से चौ. मित्रसेन को विशेष लगाव था। उनका कहना था कि स्वस्थ समाज की रचना गायों के द्वारा ही संभव है। गौ पालन करने के साथ-साथ बालक मित्रसेन ने स्वाध्याय जारी रखा। युवावस्था में पहुंचते-पहुंचते उन्होंने वेदों, शास्त्रों, आर्ष साहित्य, सत्यार्थ प्रकाश और रामायण का अध्ययन कर लिया था। वैदिक संस्कृति, महर्षि दयानंद और सत्यार्थ प्रकाश का उन पर विशेष प्रभाव रहा।
1948 में आर्य जी का विवाह जींद जिले में स्थित गांव जुलानी के चौ. अमृत सिंह सहारण की बेटी श्रीमती परमेश्वरी देवी के साथ हुआ। कहते हैं हर सफल व्यक्ति के पीछे स्त्री का हाथ होता है। श्रीमती परमेश्वरी देवी ने हर कदम पर चौ. मित्रसेन आर्य का साथ दिया। जिस कारण सफलता की राह उनके लिए आसान होती चली गई। श्रीमती परमेश्वरी देवी की कोख से 6 पुत्ररत्न और 3 विदुषी पुत्रियां हुई।
चौ. मित्रसेन आर्य खुशी-खुशी पुरुषार्थ में विश्वास रखते थे। शुरू से ही वे अपना स्वयं का व्यवसाय करना चाहते थे, लेकिन इसके लिए अनुभव जरूरी था। इसलिए उन्होंने करीब नौ साल तक रोहतक, उदयपुर, हिसार, सोनीपत आदि में नौकरी की और तकनीकी ज्ञान हासिल किया। शुरू में साझे में और फिर 1957 में उन्होंने रोहतक में अपना व्यवसाय लेथ मशीन लगाकर शुरू किया।
उन्होंने अपना कामकाज शुरू ही किया था कि 1957 में हिन्दी आंदोलन शुरू हो गया। इस आंदोलन में चौ. मित्रसेन ने बढ-चढकर हिस्सा लिया। इसी कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। जेल जाने के कारण काम बिखर गया लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और लगातार आगे बढते रहे।
सातवें दशक के शुरू में उन्होंने व्यवसाय बढ़ाने के लिए हरियाणा से बाहर का रुख किया। 1961 में उड़ीसा के एक व्यवसायी के साथ उन्होंने वर्कशाप लगाई। इसके बाद 1964 को बड़बिल में वर्कशाप शुरू की। इसी साल बिहार की नवामण्डी में हरियाणा इन्जीनियरिंग वर्क्स के नाम से नई यूनिट खोली, जबकि उस समय तक हरियाणा बना भी नहीं था। यह उनकी लग्न और अथक परिश्रम का नतीजा था कि 1967 आते-आते चौ. मित्रसेन देश के बड़े कारोबारियों में शुमार हो गए।
पैतृक व्यवसाय खेती में उनकी गहरी रुचि थी। उन्होंने बागवानी को नया आयाम दिया। आधुनिक खेती में योगदान के कारण भारत सरकार उन्हें दिसंबर 2003 में कृषि विषारद की उपाधि से सम्मानित किया। हरियाणा सरकार ने ही उन्हें 2002-03 में चौधरी देवीलाल किसान पुरस्कार से सम्मानित किया था।
आम धारणा है कि एक व्यवसायी को कदम-कदम पर समझौते करने पड़ते हैं लेकिन मित्रसेन जी ने इसे झुठला दिया। उनका व्यवसाय सहयोग और सत्य पर आधारित रहा। स्वार्थ और लोभ उन्हें कभी छू भी नहीं सका। उनका कहना था कि दुनिया में दो ही धर्म हैं- एक पशु धर्म और दूसरा मनुष्य धर्म। जो दूसरे का अहित कर आगे बढ़े वो पशु है और जो एक-दूसरे का सहयोग करते हुए आगे बढ़े, वो मनुष्य है।
वेद के आदर्शों को अपनाने वाले चौधरी मित्रसेन ने इस सूत्र को चरितार्थ किया- मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे। उनका व्यवहार सबके लिए मित्र के समान ही था। अपने अदम्य उत्साह, साहस और पुरुषार्थ से वे आजीवन देश के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक विकास में योगदान करते रहे। उनके व्यवसाय से जुड़ा हुआ हर व्यक्ति उनके लिए परिवार के सदस्य के समान था। एक बार उनसे जो जुड़ा, वो फिर कभी दूर नहीं गया। वे कहते थे कि मनुष्य के पाँच शत्रु हैं - काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार। वे अज्ञानता, आलस्य, अन्याय और अभाव को बाह्य श्त्रु मानते थे। उनका कहना था कि अज्ञानता, अभाव और आलस्य को यदि हम जीवन से दूर कर लेंगे तो हम कभी दुखी नहीं हो सकते। अभाव को दूर करने के लिए उन्होंने व्यवसाय किया और अपनी लगन और मेहनत से सफलता की उचाईयों को छुआ।
व्यवसाय के साथ-साथ उन्होंने अज्ञानता का अंधकार समाज से मिटाने के लिए निरन्तर प्रयास किए। इसकी शुरुआत उन्होंने अपने घर से की। अपनी धर्म पत्नी श्रीमती परमेश्वरी देवी को पढ़ना सिखाया। उनका मानना था कि एक शिक्षित महिला ही बच्चों को सही संस्कार दे सकती है। लड़कियों को शिक्षित करने में उनकी विशेष रुचि थी। उन्होंने अपने गांव खांड़ा खेड़ी में कन्याओं का स्कूल शुरू करवाया। वर्तमान में इस परममित्र आर्य कन्या विद्या निकेतन में 1000 से अधिक छात्रांए शिक्षा ले रही है। उन्होंने 1981 में उडीसा के आमसेना गांव में आदिवासी कन्याओं को शिक्षित करने के लिए कन्या गुरूकुल आमसेना की स्थापना की। उन्होंने बड़बिल में एक कालेज बनवाया।
1962 में स्वामी धर्मानंद के सम्पर्क में आने के बाद चौ. मित्रसेन आर्य ने अनेक गुरुकुल और स्कूल शुरू करवाए। इनमें मुख्य है गुरुकुल वेदव्यास राउकुल, गुरुकुल शान्ति आश्रम लोहरदगा झारखंड, श्री जगन्नाथ उच्चतर माध्यमिक विद्यालय दमउधारा छत्तीसगढ़। इस तरह करीब 30 से ज्यादा गुरुकुल और स्कूलों को चौ. मित्रसेन आर्य द्वारा सहायता दी जा रही थी। जो आगे भी निरन्तर जारी रहेगी। चौ. मित्रसेन आर्य का मानना था आर्ष शिक्षा पद्धति ही बेहतर मनुष्य का निर्माण कर सकती है। इसलिए उन्होंने इस शिक्षा पदति को बढ़ावा दिया इनके प्रयासों से ही आर्ष पाठ विधि में बीए और एमए की डिग्री को सरकार ने मान्यता दी।
चौ. मित्रसेन जी सच्चे आर्यसमाजी थे। सरलता, सहजता और निष्कपट व्यवहार से सभी का मन जीत लेने वाले मित्रसेन जी सरस्वती और लक्ष्मी दोनों के उपासक थे। यदि कहा जाए कि वे आर्य समाज के भामाशाह थे तो अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा। मात्र 18 वर्ष की आयु में वे 1949 में रोहतक शहर के झज्जर रोड़ स्थित आर्य समाज और 1951 में गुरुकुल झज्जर के अजीवन सदस्य बन गए थे। गुरुकुलों, गोशालाओं, कन्या गुरुकुलों, आर्यसमाजों, आर्य प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा हरियाणा, पंजाब, उड़ीसा, परोपकारी सभा अजमेर और वैदिक विद्वजनों, संन्यासियों व गरीबों के लिए आर्थिक सहायता करने के लिए वे हमेशा तत्पर रहते थे। जनसेवा की निहितार्थ उन्होंने परम मित्र मानव निर्माण संस्थान की भी स्थापना की थी। इसके जरिए वे जरूरतमंदों की तो मदद कर ही रहे थे, विलुप्त हो रहे लोक साहित्य को प्रकाशित कर बहुत बड़ा काम भी कर रहे थे। गौ सेवा को वे सबसे बड़ी सेवा मानते थे। वे हर वनस्पति, प्राणी व जन्तु में जीवन मानते थे, इसीलिए उन्होंने उड़ीसा में देवी मेले पर गाय की दी जाने वाली बलि को रुकवाया।
ईश्वर में उनका अटूट विश्वास था लेकिन वे भाग्यवादी नहीं थे। उन्होंने कहा कि आलसी व्यक्ति ईश्वरीय सत्ता का तो तिरस्कार करता ही है, अपने अमूल्य जीवन को भी गंवाता है। उनका मानना था कि अच्छे कर्मों से भाग्य को बदला जा सकता है। उन्होंने स्वयं इसका उदाहरण प्रस्तुत किया। सुबह चार बजे उठना। रात 10 बजे तक सो जाना। सुबह शाम सन्ध्या करना और नित रूप से यज्ञशाला में हवन करना उनकी और उनके परिवार की दिनचर्या में शामिल हो गया। वे कहते थे कि हमारी अर्थ व्यवस्था का मूल आधार हमारे सभी धार्मिक ग्रन्थ बनें। हमारे वेद अपने आप में विज्ञान हैं। नूतन भारत के निर्माण में गीता, वेद, उपनिषदों का आकंलन हो। इन ग्रन्थों में राजतन्त्र, अर्थ तन्त्र, शिक्षा, मुद्रा, युद्धनीति, विदेश नीति सहित सभी प्रकार की नीतियों के बारे में स्पष्ट उल्लेख है। अगर हम इन ग्रन्थों के मूल दर्शन को समझ पाए और अपना पाए तो वह दिन दूर नही जब एक बार पुन: भारत दुनिया का सिरमोर देश बनेगा।
परोपकार उनके जीवन का अभिन्न अंग था। जब गुजरात में भूकंप आया और कई गांव तहस नहस हो गए तो उन्होंने श्री साहिब सिंह वर्मा के साथ राष्ट्र स्वाभिमान और ग्रामीण स्वाभिमान के आह्वान पर रिकार्ड 100 दिनों में इन्द्रप्रस्थ नामक नया नगर बसाया इसमें 800 परिवारों को बसाया गया। इस नगर का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था। इसके अलावा लातूर के भूकंप में भी इनके परिवार ने पीड़ितों की भरपूर सहायता की। उन्होंने जीवन भर दीन दुःखियों की सहायता की। जो भी जरूरतमंद उनके पास सहायता मांगने आया कभी खाली हाथ नहीं गया।
स्वतंत्रता सेनानियों और शहीदों के प्रति चौ. मित्रसेन के मन में अगाध श्रद्धा थी। वे शहीद स्थलों को तीर्थ स्थलों के समान मानते थे। वे लगभग सभी शहीद स्थलों पर जाकर शहीदों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने का प्रयास करते थे। कारगिल युद्ध के समय मोर्चे पर देश की आन बान और शान के लिए लड़ते हुए हरियाणा के 250 रणबांकुरे शहीद हो गए। चौधरी मित्रसेन आर्य ने शहीदों के परिवारजनों को एक-एक लाख रूपये की मदद दी। उन्होंने देश के रक्षा कोष में भी बहुत बड़ी धनराशि दी।
राजनीति में चौ. मित्रसेन आर्य की रुचि नहीं थी, लेकिन उनका मानना था कि राजा को सर्वहितकारी होना चाहिए। मत, पंथ और जाति में उनका विश्वास नहीं था। उनका कहना था कि जाति का निर्धारण जन्म से नहीं, कर्म से होता है। उनके वेद भवन में अनुसूचित जाति के आचार्य सुर्दशन जी को कुलपुरोहित का दर्जा और पंडित की उपाधि हासिल थी। उनके अनुसार सभी धर्मों का सार एक ही है मानवतावाद। चौ. मित्रसेन आर्य के अनुसार अच्छे संस्कार ही जीवन की वास्तविक संपति हैं।
उन्होंने कहा था-अपनी संतान को धन दौलत देने से ज्यादा हम इस बात का ध्यान रखें कि हम उन्हें संस्कारों के रूप में क्या दे रहे हैं? उनके संस्कारों का ही असर है कि उनकी सभी संतानों ने उनके आर्दशों को अपनाया। उनके द्वारा शुरू किए गए हर कार्य को बुलंदियों तक लेकर गए, चाहे व्यवसाय हो, शिक्षा हो या कोई और कार्य।
चौ. मित्रसेन आर्य ने जीवन पर्यन्त वैदिक जीवन शैली का पालन किया। उन्होंने स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा शुरू किए गए आर्य समाज को आगे बढ़ाया और गुरूकुलीय परम्परा को और मजबूत करने में तन-मन-धन से सहयोग दिया। इसी के फलस्वरूप उनके 75वें जन्मदिन पर अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित किया गया। इस ग्रंन्थ में उनके जीवन के सभी पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला गया था। इसी ग्रन्थ में स्वामी रामदेव ने चौ. मित्रसेन आर्य के बारे में कहा था : चौ. मित्रसेन एक ऐसा उन्नत और व्यापक व्यक्तित्व हैं। जो आज के समाज में अपने आप में आर्दश है। स्वामी इन्द्रवेश ने कहा था- श्रद्धा, निष्ठा, कर्मठता और वैदिक धर्म के लिए सर्मपण- चौ. मित्रसेन की यह अपनी विशेषता है।
चौ. मित्रसेन आर्य 80 वें वर्ष की उम्र में देश और समाज के उत्थान के लिए निरन्तर प्रयासरत थे, लेकिन विधि को शायद कुछ और मंजूर था। उसकी ये यात्रा अचानक एक असाध्य बीमारी ने रोक दी। कर्मयोगी, पुरुषार्थ प्रेमी, वैदिक पथ के पथिक चौ. मित्रसेन आर्य 27 जनवरी 2011 को ब्रह्मलीन हो गए। कहते हैं इंसान मिट जाते हैं, लेकिन उनके कर्म, विचार और दृष्टि हमेशा रहते हैं। शायद ये चौ. मित्रसेन आर्य के सत्यकर्म ही थे जो हजारों लाखों की भीड़ के रूप में उनकी अन्तिम यात्रा में शामिल हुए। चौ. मित्रसेन आर्य आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके आदर्श और सत्यकर्म हमेशा जीवित रहेंगे। एक मार्गदर्शक के रूप में एक प्रेरणा के रूप में..।