बचपन से ही रजनीश विरोधी प्रवृत्ति के व्यक्ति थे व परंपराओं को नहीं अपनाया। किशोरावस्था तक आते-आते रजनीश नास्तिक बन चुके थे। उन्हें ईश्वर में जरा भी विश्वास नहीं था। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीय स्वयंसेवक दल में भी शामिल हुए थे।
12 दिसंबर 2017
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नया हरियाणा
ओशो के सबसे लोकप्रिय संदेश-- जब तक भीतर से आवाज ना आए, किसी भी व्यक्ति की आज्ञा का पालन ना करो। स्वयं के अलावा दूसरा कोई ईश्वर अस्तित्व नहीं रखता। सत्य की खोज बाहर नहीं, अपने भीतर करो। और प्रेम ही प्रार्थना का दूसरा नाम है। शून्य हो जाना ही सत्य का मार्ग है। जीवन यहीं और अभी है। प्रत्येक पल मरो, ताकि हर दूसरा क्षण नया जीवन जी सको। तैरो नहीं बह जाओ। जो यहीं है, उसे ढूंढ़ने की जरूरत नहीं है, रुको और देखो। जीवन, होश में जीयो।
‘ओशो’, यह शब्द लैटिन भाषा के ‘ओशनिक’ शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है सागर में विलीन हो जाना। अपने संपूर्ण जीवन में आचार्य रजनीश ने बोल्ड शब्दों में रूढ़िवादी धर्मों की आलोचना की, जिसकी वजह से वह बहुत ही जल्दी विवादित हो गए और ताउम्र विवादित ही रहे। ओशो की पहचान एक ऐसी विवादित शख्सियत की है, जिन्होंने हमेशा स्वच्छंद जीवन और फ्री सेक्स जैसी बातों का समर्थन किया। इसके अलावा हम ओशो के बारे में यह भी कहते सुनते हैं कि वे धर्म, राष्ट्रवाद, परिवार, विवाह आदि के सख्त विरोधी थे। लेकिन क्या ओशो के विषय में किए गए ये कथन सही हैं? क्या वाकई ओशो का जीवन दर्शन इन्हीं धारणाओं के आसपास घूमता है?
मध्यप्रदेश के एक गांव में जन्में रजनीश के ओशो बनने तक के सफर से अनेक विवाद जुड़े हुए हैं। 11 दिसंबर, 1931 को मध्य प्रदेश के गांव कुछवाड़ा के एक तारनपंथी जैन परिवार में ओशो रजनीश का जन्म हुआ था। ग्यारह भाइयों में सबसे बड़े ओशो का पारिवारिक नाम रजनीश चंद्र मोहन था। 11 वर्ष की उम्र में रजनीश को अपने नानके भेज दिया गया, जहां बिना किसी नियंत्रण और रूढ़िवादी शिक्षा के पूरी उन्मुकतता के साथ उन्होंने अपना जीवन व्यतीत किया।
बचपन से ही रजनीश विरोधी प्रवृत्ति के व्यक्ति थे व परंपराओं को नहीं अपनाया। किशोरावस्था तक आते-आते रजनीश नास्तिक बन चुके थे। उन्हें ईश्वर में जरा भी विश्वास नहीं था। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीय स्वयंसेवक दल में भी शामिल हुए थे।
जबलपुर विश्वविद्यालय से स्नातक (1953) और फिर सागर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर (1957) की उपाधि की। वर्ष 1957 में संस्कृत के लेक्चरर के तौर पर रजनीश ने रायपुर विश्वविद्यालय जॉइन किया। लेकिन उनके गैर परंपरागत धारणाओं और जीवन यापन करने के तरीके को छात्रों के नैतिक आचरण के लिए घातक समझते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति ने उनका ट्रांसफर कर दिया। अगले ही वर्ष वे दर्शनशास्त्र के लेक्चरर के रूप में जबलपुर यूनिवर्सिटी में शामिल हुए। इस दौरान भारत के कोने-कोने में जाकर उन्होंने गांधीवाद और समाजवाद पर भाषण दिया, अब तक वह आचार्य रजनीश के नाम से अपनी पहचान स्थापित कर चुके थे।
कहा जाता है कि उस समय आचार्य रजनीश की सेवा में 93 रॉल्स रॉयस गाड़ियां उपस्थित रहती थीं। उनके इस अत्याधिक महंगी जीवनशैली ने भी उन्हें हर समय विवादों के साये में रखा। भारत में तो ओशो रजनीश अपने सिद्धांतों की वजह से विवादों में रहते ही थे लेकिन ओरेगन में रहते हुए वे अमेरिकी सरकार के लिए भी खतरा बन चुके थे। अमेरिका की सरकार ने उन पर जालसाजी करने, अमेरिका की नागरिकता हासिल करने के उद्देश्य से अपने अनुयायियों को यहां विवाह करने के लिए प्रेरित करने, जैसे करीब 35 आरोप लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उन्हें 4 लाख अमेरिकी डॉलर की पेनाल्टी भुगतनी पड़ी साथ ही साथ उन्हें देश छोड़ने और 5 साल तक वापस ना आने की भी सजा हुई।
अमेरिका से लौटकर आचार्य रजनीश दोबारा पुणे आ गए। यहां आकर उन्होंने ‘ओशो’ नाम ग्रहण किया। उन्होंने नेपाल के काठमांडू और ग्रीस की यात्रा की, लेकिन किसी भी देश ने उन्हें रहने की अनुमति नहीं दी। वर्ष 1986 में ओशो रजनीश पुणे में ही बस गए, जहां रहते हुए उन्होंने अपने आश्रमों और सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया।
19 जनवरी, वर्ष 1990 में ओशो रजनीश ने हार्ट अटैक की वजह से अपनी अंतिम सांस ली। जब उनकी देह का परीक्षण हुआ तो यह बात सामने आई कि अमेरिकी जेल में रहते हुए उन्हें थैलिसियम का इंजेक्शन दिया गया और उन्हें रेडियोधर्मी तरंगों से लैस चटाई पर सुलाया गया। जिसकी वजह से धीरे-धीरे ही सही वे मृत्यु के नजदीक जाते रहे। खैर इस बात का अभी तक कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ है लेकिन ओशो रजनीश के अनुयायी तत्कालीन अमेरिकी सरकार को ही उनकी मृत्यु का कारण मानते हैं।