सोच रही थी क्या बात की जाए,1914-1918 के बीच के असहयोग आंदोलन पर लिखें या गाँधी जी को नमक बनाने से रोक़ा गया तो उन्होंने अंग्रेजो को डांडी यात्रा (12 मार्च 1930 - 6 अप्रैल 1930) निकाल के जवाब दिया उसपर बात करें, लेकिन फिर लगता है यह सब अभी कुछ दिनों में आपको न्यूज़ चैनल रो गा कर बता ही देंगे चूंकि 15 अगस्त नज़दीक है।
तो आज बात उस घटना पर करेंगे जिसके बारे में अब तो बात भी नही होती,बल्कि जहाँ तक मुझे लगता है आपमें से कइयों को तो शायद इसका पता भी ना हो, और यह घटना है 1943 में 30 से 40 लाख लोगों का अंग्रेजो द्वारा कत्ल हाँ उसे कत्ल ही कहना सही होगा।
दो बातें ध्यान देनी होंगी, पहली तो यह कि इस घटना के समय हमारा देश गुलाम था,और दूसरा टेक्निकली इस घटना के लिये उस समय देश की सरकार सीधे सीधे ज़िम्मेदार थी भी नही,मुझसे काफ़ी लोग कहते हैं, अंग्रेजो ने भारत को इतना कुछ दिया, तो उनके लिये ये खास लिख रही हूँ घटना कि अंग्रेजो से बहुत कुछ मिला हमें इसमें दो राय नही लेकिन उस बहुत कुछ को पाने बहुत बड़ी कीमत भी हमने चुकाई है।
जब वर्ल्ड वॉर 2 के दौरान जापान की सेना भारत के पड़ोसी देश बर्मा पहुँची तो ब्रिटेन ने ना सिर्फ जापान की सेना को रोकने के लिये अपनी सेना को बर्मा की बॉर्डर पर भेजा,बल्कि इस युद्ध के दौरान बंगाल के पूरे के पूरे खेत तबाह हो गए,क्योंकि इस युध्द को लड़ने के चक्कर में ब्रिटेन ने ना सिर्फ बंगाल के 180000 किसानों को अपने ही खेतों से भगा दिया,बल्कि 125000 एकड़ खेती की ज़मीन पर अपनी आर्मी बेस बनाने के लिये कब्जा कर लिया,इसके साथ साथ ब्रिटेन की आर्मी ने बंगाल की तमाम बोट्स को कब्जे में लेते हुए,बंगाल की खाड़ी में जहाजों के आने जाने पर रोक लगा दी।
और हद तो यह हो गई कि ब्रिटेन की आर्मी ने बंगाल के ज़्यादातर अनाज के गोदामों को सिर्फ इसलिये जला दिया कि कहीं जापान बंगाल पर कब्ज़ा करे तो उसे खाने को राशन ना मिले,लेकिन 14 नवंबर 1942 को बंगाल में एक भीषण तूफान आया और इस तूफान ने बंगाल की बची हुई फसलों को तहस नहस करके रख दिया और इसी वजह से 1943 में बंगाल में अकाल पड़ा।
यह अकाल इतना खतरनाक था कि ना सिर्फ बंगाल के लोगों को घास फूंस खा कर काम चलाना पड़ा बल्कि माँ बाप ने अपने बच्चों को सिर्फ़ इसलिये नदियों में ज़िंदा बहा दिया क्योंकि उनके पास उन्हें खिलाने के लिये कुछ नही था,जो लोग किसी तरह कलकत्ता पहुँच पाए उन्हें भी अपना पेट भरने वैश्यावृत्ति में उतरना पड़ा,और देखते ही देखते 30 से 40 लोग मर गए।
लेकिन ऐसा नही है कि इन लोगों को बचाया नही जा सकता था,एक इंसान था जो इन लोगों को बचा सकता था और वह थे उस समय ब्रिटेन के प्राइम मिनिस्टर विंसेंट चर्चिल.. लेकिन इन लोगों को बचाने के बजाए चर्चिल ने बंगाल में पड़े अकाल की खबरों का ब्रिटेन के अखबारों में छपने तक पर रोक लगा दी,और तो और बेशर्मी की हद तो यह थी कि 1943 में अकाल के दौरान भी 75 हज़ार टन का वो फ़ूड एक्सपोर्ट जो इंडिया वर्ल्ड वॉर 2 के दौरान ब्रिटेन के आर्मी के लिये कर रहा था चालू रहा जिसके चलते बंगाल में जहाँ खाने की कमी हो रही थी, वहीं ब्रिटेन का फ़ूड स्टॉक बढ़ कर 18 मिलियन टन हो चुका था,जो ब्रिटेन की अगले 10 साल तक ज़रूरत पूरी करने के लिये काफी था।
लेकिन जब इंडिया के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट लियो एमरी ने ब्रिटेन से मदद माँगी तो ,ना सिर्फ़ चर्चिल ने उस रिकवेस्ट को ठुकरा दिया बल्कि ऑस्ट्रेलिया के खाने के वो जहाज जो उस समय बंगाल के पास से गुज़र रहे थे उन्हें वहाँ रोकने के बजाए सीधे ब्रिटेन बुला लिया, और चर्चिल की सोच किस हद तक गिरी हुई थी इस बात का अंदाज़ा आप चर्चिल के द्वारा बोले गए सिर्फ़ इस एक वाक्य से लगा सकते हैं जो उन्होंने बंगाल में आये अकाल के बारे में बोलते हुए हिंदुस्तान के लिए कहा,
"Famine or not famine indians will breed like rabbit"
इसीलिये फाइनली अगस्त 1943 को ब्रिटेन के अखबार स्टेस्टसमैन ने तमाम नियम कायदे को साइड में रखते हुए बंगाल के अकाल की खबरें अखबार में छाप दी, और इन तस्वीरों से ना सिर्फ पूरी दुनिया में हड़कंप मच गया बल्कि यहीं से ब्रिटेन की जनता को पता चला कि बंगाल में हालात किस कदर खराब हैं,और फाइनली 1944 आते आते इंडिया के लिये मदद भेजना शुरू की गई, लेकिन तब तक इस मदद का कोई औचित्य नही रह गया था,क्योंकि अब तक 30 से 40 लाख लोग ना सिर्फ मर चुके थे बल्कि 1944 की शुरुवात में बंगाल में जो फसल हुई वो बंगाल के लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये काफी थी और यह था वह दर्द जो हमारे लोगों ने गुलामी के दौर में सहा।
इसलिये आज़ादी की कीमत को समझना और इसे बनाए रखना हमारी जवाबदारी है, नई पीढ़ी जो आजकल अपनी आज़ादी को हल्के में लेती है,उन्हें इतिहास पढ़ना चाहिये और जानना चाहिये आज जो बोल पा रहे हो खुली हवा में सांस ले पा रहे हो उसकी कितनी बड़ी कीमत हमारे लोगो ने चुकाई है